केंद्र की मोदी सरकार ने ऐतिहासिक कदम उठाते हुए जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटा दी। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर से लद्दाख को अलग कर दिया। उम्मीद थी कश्मीर के हालात बेहतर होंगे। ये भी सच है कि 2019 में धारा 370 हटाने के बाद केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर खासकर घाटी में विकास और तरक्की के साथ साथ लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने ना सिर्फ अमन-शांति और सुरक्षा के लिहाज से कश्मीर को सुनिश्चित किया बल्कि केंद्र सरकार के हर विभाग ने जम्मू-कश्मीर में अपनी ताकत झोंक दी।
हालात तेजी से बदले भी। लोगों ने सरकार के कदम का स्वागत किया। सिर्फ इतना ही नहीं 2014 से आतंकियों के खिलाफ अभियान चला रही मोदी सरकार ने 2019 में बड़ा फैसला करने के बाद आंतकी घटनाएं रोकने के लिए तेज पहल की। शुरुआत में सफलता भी मिली। लेकिन धीरे धीरे कश्मीर का आतंक चरमपंथ की तरफ बढ़ चला। जहां कश्मीर की आजादी या पाकिस्तान की सरपरस्ती से ज्यादा कट्टर इस्लामी जेहाद का नंगा नाच होने लगा है।
ताजा स्थिति ये है कि एक के बाद एक कश्मीर में चुन चुन कर हिंदुओं को मौत के घाट उतारा जा रहा है। एक तरफ केंद्र सरकार जहां जम्मू कश्मीर में बाकी हिंदुस्तान के लोगों को आमंत्रित कर रही है तो वहीं दूसरी तरफ आतंकियों ने माखनलाल बिंद्रू और अन्य कश्मीरी पंडितों को अपना निशाना बना कर अपने इरादे साफ कर दिये हैं। सिर्फ तीन दिन में आतंकियों ने पांच लोगों की हत्या की है। इनमें से चार कड़ी सुरक्षा व्यवस्था वाले श्रीनगर में ही मारे गए हैं।
कश्मीर से जम्मू पहुचे 23 परिवार
घाटी के हालात इतने खराब हो चले हैं कि कश्मीरी हिंदूओं को प्रशासन ने 10 दिन का अवकाश दिया है, ताकि वह हालात सामान्य होने तक या तो अपनी कालोनियों में रहें या फिर कश्मीर से बाहर जम्मू या किसी अन्य शहर में अपने स्वजन के साथ। ऐसी ही स्थिति 1990 के दौर में बनी थी जब कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन किया था। जानकारी के मुताबिक 23 परिवार कश्मीर से जम्मू पहुंच भी गए हैं।
गैर मुस्लिमों के खदेड़ने की कोशिश
19 जनवरी 1990 की सर्द सुबह थी। कश्मीर की मस्जिदों से उस रोज अज़ान के साथ-साथ कुछ और नारे भी गूंजे। 'यहां क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा', 'कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाहू अकबर कहना है' और 'असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान' मतलब हमें पाकिस्तान चाहिए और हिंदू औरतें भी मगर अपने मर्दों के बिना। यह संदेश था कश्मीर में रहने वाले हिंदू पंडितों के लिए। ऐसी धमकियां उन्हें पिछले कुछ महीनों से मिल रही थीं। सैकड़ों हिंदू घरों में उस दिन बेचैनी थी। सड़कों पर इस्लाम और पाकिस्तान की शान में तकरीरें हो रही थीं। हिंदुओं के खिलाफ जहर उगला जा रहा था। वो रात बड़ी भारी गुजरी, सामान बांधते-बांधते। पुश्तैनी घरों को छोड़कर कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन का फैसला किया।
एक बार फिर कश्मीर में 1990 जैसे हालात नजर आ रहे हैं। करीब दो दर्जन परिवार कश्मीर से पलायन कर गए हैं। इनमें कई सरकारी मुलाजिम भी हैं। मतलब यह कि कश्मीर से गैर मुस्लिमों की फिर से खदेड़ने की साजिश है।
कश्मीर में लगातार की आतंकी द्वारा हत्याएं सिर्फ कश्मीर के हालात खराब दिखाने की आतंकी साजिश नहीं हैं। मक्खन लाल बिंदरु, विरेंद्र पासवान, सुपिंदर कौर और दीपक चंद की हत्या कश्मीर से गैर मुस्लिमों को भगाने और उनमें डर पैदा करने के लिए हुई हैं। 1990 से पहले भी इस तरह की घटनाओं को सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया गया था। इसके बाद कश्मीरी समाज के गणमान्य नागरिक टीका लाल टपलू, सर्वानंद प्रेमी, नीलकंठ गजू आदि की हत्याओं का सिलसिला शुरू हुआ। अगर राज्य प्रशासन और केंद्र सरकार ने इन हत्याओं को नहीं रोका गया तो कश्मीर में हिंदुओं या गैर मुस्लिम लोगों को रोकना मुश्किल हो जाएगा।
प्रधानमंत्री रोजगार पैकेज के तहत कश्मीर में नौकरी करने वाले कई कश्मीरी पंडित मुलाजिम जम्मू लौट आए हैं। एक कश्मीरी पंडित कर्मी ने अपना नाम न छापे जाने की शर्त पर कहा कि मेरी ड्यूटी कुलगाम में है। वहां माहौल में ही डर महसूस होने लगा है। जिस दिन मक्खन लाल बिंदरु की हत्या हुई, उसी दिन घरवालों ने वापस आने को कहा था। अब तो वहां नाम और पता पूछकर कत्ल कर रहे हैं।
आतंकी क्यों कर रहे हैं कश्मीरी पंडितों की हत्या
केंद्र की मोदी सरकार और जम्मू कश्मीर प्रशासन इस समय कश्मीर में कश्मीरी हिंदुओं की संपत्ति पर कब्जे छुड़ाने में सक्रिय है। ऐसे मेंआतंकियों ने चार अल्पसंख्यकों को मार डाला। दरअसल आतंकियों ने ऐसी घटनाओं को अंजाम देकर कश्मीर में लौटने के इच्छुक विस्थापितों को रोकने का प्रयास किया है।
आतंकियों ने लगाए थे हिंदू घरों पर लाल निशान
दीवारों पर पोस्टर्स लगाए गए कि हिंदुओं कश्मीर छोड़ दो। हिंदू घरों पर लाल घेरा बनाया गया। उसके बाद श्रीनगर के कई इलाकों में हिंदुओं के मकान आग के हवाले कर दिए गए। हिंदू महिलाओं को तिलक लगाने पर मजबूर किया गया। उनके साथ ब्लात्कार की वारदातें आम हो गई थीं। कलाशनिकोव (एके-47) लिए उपद्रवी किसी भी घर में घुस जाते और लूटपाट व अत्याचार करते। घड़ियों को पाकिस्तान स्टैंडर्ड टाइम के हिसाब से सेट करवाया जाता। स्थानीय सरकार पंगु थी।
पहले से ही धधकने लगी थी आग
हिंदुओं की हत्या का सिलसिला 1989 से ही शुरू हो चुका था। सबसे पहले पंडित टीका लाल टपलू की हत्या की गई। श्रीनगर में सरेआम टपलू को गोलियों से भून दिया गया। वह कश्मीरी पंडितों के बड़े नेता थे। आरोप जम्मू-कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट के आतंकियों पर लगा मगर कभी किसी के खिलाफ मुकदमा नहीं हुआ। चार महीने बाद, 4 जनवरी 1990 को श्रीनगर से छपने वाले एक उर्दू अखबार में हिजबुल मुजाहिदीन का एक बयान छपा। हिंदुओं को घाटी छोड़ने के लिए कह दिया गया था। इस वक्त तक घाटी का माहौल बेहद खराब हो चुका था। हिंदुओं के खिलाफ भड़काऊ भाषणों की भरमार थी। उन्हें धमकियां दी जा रही थीं जो किसी खौफनाक सपने की तरह सच साबित हुईं।
अब तक क्या हुआ विस्थापितों को बसाने के लिए
पिछले 31 साल में कश्मीरी पंडितों को वापस घाटी में बसाने की कई कोशिशें हुईं, मगर नतीजा सिफर रहा। 92 के बाद हालात और खराब होते गए। हिंदुओं को भी इस बात का अहसास है कि घाटी अब पहले जैसी नहीं रही। 5 अगस्त, 2019 को जब भारत सरकार ने जम्मू और कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किया तो कश्मीरी पंडित बेहद खुश थे। मगर उनकी वापसी के अरमान अब भी अरमान ही हैं।
कश्मीर में हर घर में आंतकी
दरअसल केंद्र की मोदी सरकार हो या इससे पहले की केंद्र और जम्मू कश्मीर राज्य की सरकारें। सभी सरकारों ने जिस सच्चाई से मुंह मोड़ा है वो है कश्मीर में इस्लामी कट्टरपंथ और जेहाद। मोदी सरकार बनने के बाद तमाम कोशिशों के बावजूद घाटी के लगभग हर घर से 20-22 साल के लड़के आंतकी बनने चले जाते हैं। अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार जम्मू कश्मीर में लोकतंत्र के ऐसे मुखौटे हैं जो दरअसल कट्टर इस्लामी जेहाद को बढ़ावा देने वाले मुस्लिम अलतकैया है। हुर्रियत जैसे संगठनों के नेता उम्र की दहलीज पार कर भले अपनी मौत मर रहे हों लेकिन मरने से पहले उन्होंने कश्मीर में कश्मीरियत और जम्हूरियत दोनों को दफन कर दिया है और जो छोड़ा है वो है आतंक और जेहाद।
अब कैसे होगा कश्मीर समस्या का समाधान
20वीं सदी की शुरुआत में लगभग 10 लाख कश्मीरी पंडित थे। आज की तारीख में 9,000 से ज्यादा नहीं हैं। 1941 में कश्मीरी हिंदुओं का आबादी में हिस्सा 15% था। 1991 तक उनकी हिस्सेदारी सिर्फ 0.1% रह गई थी। जब किसी समुदाय की आबादी 10 लाख से घटकर 10 हजार से भी कम रह जाए तो उसके लिए एक ही शब्द है : नरसंहार।
जाहिर है अब कश्मीर को बचाने का एक ही रास्ता है जो काम 20वीं सदीं में कश्मीरी पंडितों के साथ स्थानीय मुसलमानों ने किया वो काम अब उनके साथ किया जाए। कश्मीर ही एकमात्र जरिया है शेष हिंदुस्तान के मुस्लिम कट्टरपंथियों को जो भारत को वापस इस्लामी राष्ट्र बनाना चाहते हैं उन्हें सबक देकर कि अब ना तो भारत में 1992 की स्थिति बनेगी, ना ही 1947 की और मुगल भारत का सपना लेकर भारत में रहने वाले मुसलमान या तो देश छोड़ दें और या ईमानदारी से घर वापसी कर लें।
टीम स्टेट टुडे
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