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सेक्युलर मंजर बांग्लादेश का !





सार्वभौम गणराज्य बांग्लादेश की स्वर्णजयंती (26 मार्च 2021) पर कई अनबूझे, पुराने प्रश्न उभरते हैं। उत्तर खोजते हैं। हल तलाशते हैं। मसलन अखण्ड भारत में जिस भूमि पर लाखों हिन्दुओं का संहार हुआ, जो जिन्नावादी मुस्लिम लीग का किला रहा, भक्ति आन्दोलन और साहित्य की जन्मभूमि रही वहीं बंग धरती आखिर आज भी भारत की प्रगाढ़ मित्र क्यों नहीं बन पाई !


यह सवाल सीधे उन भारतीय नागरिकों से है जो अभी तक बांग्ला गणराज्य के स्वतंत्र अस्तित्व को सह नहीं पाये हैं। जिनकी आखों को यह सेक्युलर, मुस्लिम—बहुल राष्ट्र सुहाता ही नहीं है।


मसलन सेना के कप्तान अब्दुल माजिद ने बंगबधु शेख मुजीबुर रहमान की 15 अगस्त 1975 के दिन हत्या की थी। उनका शरीर छलनी कर दिया था। उनके पोता—नाती के साथ पूरे परिवार को मार डाला था। शेख हसीना बाहर गयीं थीं अत: बच गयीं। यह हत्यारा अब्दुल माजिद 23 वर्षों तक भारत में छिपा रहा। सुरक्षित रहा। आवभगत भी खूब हुयी होगी। स्वतंत्र—निर्भय होकर रहा। तकदीर खराब थी कि कोलकाता से लुकेछिपे ढाका गया। पहचान लिया गया। हत्या का मुकदमा चला। बांग्लादेश के सर्वोच्च न्यायालय ने सजाये मौत दी। गत वर्ष, 45 वर्षों बाद, 13 फरवरी को फांसी पर चढ़ा। राष्ट्रपति अब्दुल हामिद ने अब्दुल माजिद की दया याचना खारिज कर दी थी।


तो कौन जवाब देगा कि सेक्युलर, गंगा—जमुनी भारत में हमारे मित्र बंगबंधु का नृशंस कातिल कैसे इतने सालों तक पनाह पा गया? किस जमात ने, किस शख्स ने अथवा किस खानदान ने ये भरपूर सहूलियतें एक जघन्य खूनी को मुहैय्या करायीं? भारतीय पुलिस का नाकारापन और कोताही रही। मगर आस पड़ोस के मुहल्ले के लोग अब्दुल माजिद को क्यों नहीं गिरफ्तार करा पाये? कैसी हमदर्दी थी? आखिर क्यों?



उन दिनों मार्शल सैम मानेकशाह के नेतृत्व में भारतीय फौज पूर्वी पाकिस्तान को मुक्त कराने की योजना बना रही थी। ढाका और अन्य स्थानों से शरणार्थी पंजाबी—पठान सैनिकों से बचते—छुपते भारत आ रहे थे। उनकी संख्या एक करोड़ के करीब हो रही थी। तभी इन कुछ संघर्षशील मुस्लिम युवाओं को अहमदाबाद भेजा गया। कई गुजराती हिन्दुओं ने धन और मन से मदद की पर आवास नहीं दिया क्योंकि वे शाकाहारी थे। अब मुझे अपने साथी गुलाम यूसुफ पटेल (टाइम्स में मेरी साथी रिपोर्टर) की मदद से उन सब को जमालपुर तथा कालुपुर के मुस्लिम मोहल्लों में टिकाया गया। वहां उन्हें मांसाहारी भोजन भी मिल जाता। मगर समस्या ज्यादा विकराल हो गयी, जब शाम को वे सब भागकर मेरे दफ्तर आ धमके। कारण बताया कि उन मोहल्ले के बाशिन्दे उन्हें परामर्श के रुप में चेतावनी दे रहे थे कि पाकिस्तान का विरोध मत करो। पूर्वी सूबे वाले इस दारुल इस्लाम में ही रहो। तब हम सबको आक्रोश हुआ। बेबस थे। उन्हें फिर दिल्ली और पटना भिजवाया। मगर दिल उदास हो गया कि भारत कितना भी सेक्युलर हो, मजहब राष्ट्रीयता पर हावी ही रहेगा।



उसी दौर में शेख हसीना अपने दो पुत्र और पति के साथ दिल्ली के पण्डारा पार्क में शरण पायीं थीं। करोलबाग बंगसभा तथा मिन्टो रोड पूजा समिति के समारोहों में वे सपरिवार भाग लेतीं रहीं।


नरेन्द्र मोदी की दो दिवसीय ढाका यात्रा के दौरान कल एक त्रासद वाकया हुआ। भारत—विरोधी कट्टर मुस्लिम जमात हिफाजते—इस्लाम ने अपने गढ़ बन्दरगांव शहर चटगांव में मदरसों के छात्रों को जमा कर भारत—विरोधी प्रदर्शन कराया। पुलिस की गोली में चार लोग मारे गये। यह फ्रेंच संवाद समिति (एएफपी) की खबर केवल वामपंथी अंग्रेजी दैनिक हिन्दू (पृष्ठ—13 पर, शनिवार, 27 मार्च 2021) में छपी। यह हिफाजते इस्लाम संस्था मदरसे के छात्रों को भटकाने का काम करती है। कुछ समय पूर्व सर्वोच्च न्यायालय (ढाका) के सामने इसने जुलूस निकाला था यह मांग करते हुय कि न्याय की देवी संत थेमिस की तराजू लिये हुये, आखों पर पट्टी बांधे हुये मूर्ति को तोड़ कर कुरान को रखा जाये। उनका नारा गूंजता रहा : ''आमार सोबायी (सभी) तालिबान। बांग्ला होबे अफगानिस्तान।'' इन्हीं कट्टर मुसलमानों ने स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती और बंगबंधु मुजीब की प्रतिमा लगाने का जमकर विरोध किया क्योंकि यह इस्लाम विरोधी बुतपरस्ती होगी। वे सब शिया, वहाई, अहमदिया आदि को बांग्लादेश से निकाल बाहर करने के जेहादी हैं।



भाजपा नेता मोदी की यह बांग्लादेश यात्रा पश्चिम बंगाल विधानसभा के मतदान से भी जुड़ती है। शेख हसीना ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सामान्य सभा के अधिवेशन के समय (27 सितम्बर 2014) नरेन्द्र मोदी को शारदा चिट फंड घोटाले के दस्तावेज दिये थे। कारण था कि तृणमूल कांग्रेस के सांसद अहमद हसन इमरान उस वक्त बांग्लादेश की जमायते इस्लामी को वित्तीय मदद दे रहे थे ताकि वहां शेख हसीना की सरकार का तख्ता पलट सके। शारदा चिट फंड घोटाले में टीएमसी के कई पुरोधा संलिप्त हैं। ममता बनर्जी के भ्रष्टाचार का यह बड़ा प्रमाण है। सीबीआई द्वारा जांच हो रही है। आम चुनाव में यह चिट फण्ड खास मुद्दा भी बन गया है।



बांग्लादेश और भारत के संबंधों का अध्ययन करते समय एक विशिष्ट मतभेद का उल्लेख करना आवश्यक है। वह है, भाषा का। भारत में कई राज्यों में उर्दू का समादर होता है। लिखी—पढ़ी जाती है। लोकप्रिय है। वह हिन्दू घरों में खूब बोली जाती है, प्रचलन है। हिन्दुस्तान के साहित्य में प्रमुख स्थान है।

मगर मुस्लिम—बहुल बांग्लादेश का जन्म ही उर्दू के सार्वजनिक प्रतिरोध के कारण हुआ है। यह विडंबना है। इस बंगभाषी इस्लामी गणराज्य के विरोध में रहे इस समूची समस्या में उर्दू के बीज जमे थे, उगे थे। 15 मार्च 1948 को पूर्वी पाकिस्तान की यात्रा पर नये गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने ढाका में ऐलान किया कि उर्दू ही पाकिस्तान की एकमात्र भाषा होगी। यह भी कहा कि जो उर्दू—विरोधी हैं वे पाकिस्तान के दुश्मन हैं। पाकिस्तान संविधान सभा में 28 सितंबर 1948 को उर्दू राज्यभाषा बना दी गयी। जबकि बांग्ला बहुत प्राचीन है। फिर 21 फरवरी से 1952 से पूर्वी पाकिस्तान में जनविरोध उभरा, हजारो बंगभाषी पुलिस गोलीबारी में मारे गये। मगर पश्चिम पाकिस्तान पर लेशमात्र असर भी नहीं हुआ। जब गुजरती भाषी—जिन्ना से पूछा गया कि क्या उर्दू में वे पारंगत हैं, तो उनका उत्तर था : ''अपने खानसामा को हुक्म देने भर की उर्दू मुझे आती है।''



बस तभी से बांग्लाभाषा की पहचान हेतु जंग शुरु हो गयी। यूं उर्दू भाषा पश्चिम पाकिस्तान की भी नहीं है। सिंधी, पंजाबी, पश्तो, अरबी ही रही। उर्दू तो भारतीय भाषा रही। निज भाषा बांग्ला पर गर्व करने वाली बांग्लादेशी मुस्लिम महिलायें अभी भी सिंदूर, बिन्दिया, केश फूल से सवारतीं हैं। इसे कट्टर मुसलमान लोग हिन्दू अपसंस्कृति वाली छूत की बीमारी कहतें है। अर्थात भारतीय मुसलमानों की साफ पहचान वेशभूषा और बोलचाल से इस्लामी है। पर बांग्लादेशी मुसलमान जब तक नाम न बताये बंगाली हिन्दू ही लगता है।


के.विक्रम राव (वरिष्ठ पत्रकार)
के.विक्रम राव (वरिष्ठ पत्रकार)

इसीलिये शायद पाकिस्तानी आवामी मुस्लिम लीग के संस्थापक मौलाना अब्दुल हामिद खान भाशानी ने दुखी होकर कहा था कि विश्व में सर्वाधिक मस्जिद पूर्वी पाकिस्तान में हैं। यहां लोग रमजान पर मार्केट बंद रखतें हैं, रोजे रखतें हैं। ''फिर भी ये पंजाबी—सिंधी हमें मुसलमान नहीं मानते। तो क्या हम पूर्वी पाकिस्तानियों को अपनी तहमत उठानी पड़ेगी सिर्फ यह साबित करने के लिये कि हम इस्लामी हैं।'' शायद इसी क्रूर व्यवहार का अंजाम है कि पूर्वी पाकिस्तानियों ने लुंगी, तो नहीं मगर हथियार उठा लिये। पाकिस्तान से आजादी हासिल कर ली। यह सबक है पाकिस्तानपरस्त कश्मीरियों के लिये भी। संभल जायें।


लेखक - के.विक्रम राव (वरिष्ठ पत्रकार)



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