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समसामयिक डिजिटल युग, समाज और हम




- ओम प्रकाश मिश्र


बीसवीं शताब्दी के अन्त मे, समस्त विश्व में एक नई प्रौद्योगिकीय क्रान्ति का पदार्पण हुआ। प्रौद्योगिकी से भौगोलिक दूरियाँ समाप्त हो गई। इसके पहले की जीवनशैली, रहन सहन और आपसी सरोकार भी पूर्णतः परिवर्तित हो गये। अब धीरे-धीरे सामाजिक सम्बन्ध-सरोकार की नेटवार्किंग, सूचना प्रौद्योगिकी के नेटवर्क से प्रभावित होने लगे।


समाज का एक हिस्सा यह मानता है कि मानव-समाज-राष्ट्र व अखिल विश्व का कल्याण केवल तकनीकी प्रगति से ही संभव हो सकता है। यही वर्ग भौतिक सफलताओं को, मानव की प्रगति व कल्याण का आधार भी समझता है। इस वैभव/सम्पन्नता की अंधी दौड़ और गलाकाट प्रतियोगिता से जनित विलासपूर्ण जीवन ही सब कुछ यही वर्ग समझता है। उनके लिए जीवन के शाश्वत मूल्यों के लिए कोई महत्व नहीं है।



एक अत्यन्त विचित्र समय का आजकल अनुभव हो रहा है। एक तरफ, प्रौद्योगिकीय सफलताओं को गगन चुंबी महत्वाकांक्षाओं का केन्द्र बनाया गया हैं, दूसरी तरफ, मनुष्य के मूलभूत जीवन मूल्यों, आदर्शो का ध्यान कम आता है। हम अक्सर भूल जाते हैं कि मनुष्य का पहला आविष्कार अग्नि, हमें प्रकाश दे भी सकती है और वही अग्नि हमें जला भी सकती है। यही व्याख्या सभी महत्वपूर्ण आविष्कारों पर समझी जा सकती है। परमाणु ऊर्जा आदि का भी उपयोग करके मानव कल्याण व समाजहित होता है, परन्तु इनके दुरूपयोग का प्रयास करके विध्वंस व मानव सभ्यता का नाश भी किया जा सकता है। इस हेतु सम्यक् विवेक एवं सद्बु़द्ध से ही इन आविष्कारों एवं सूचना प्रौद्योगिकी का भी उद्देश्य पूर्ण सदुपयोग किया जा सकता है। समाज को इस दिशा में विचार करना ही होगा।


आज जिस युग में रह रहे हैं, उसे डिजिटल युग कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा। आज हमारा समाज और हम सभी अपने बहुत सारे कार्यो के लिए डिजिटल माध्यम पर बहुत हद तक निर्भर है। डिजिटलाइजेशन ने हमारे जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। कठिन और कठिन और असम्भव लगने वाले कार्य भी, डिजिटल प्रौद्योगिकी के उपयोग से, सुचारू और सुगमता पूर्वक किए जा सकते है। डिजिटल प्रौद्योगिकी ने समाज की कार्यशैली को अनेकों स्तर पर, आमूलचूल रूप से परिवर्तित किया है। इन्टरनेट मीडिया के अनेक प्लेटफार्मों का उपयोग करके हम गर्व की भी अनुभूति करते है।



कोरोना महामारी के काल में, एक तरह से नये डिजिटल युग का प्रार्दुभाव हुआ। विद्यार्थीगण, विद्यालय नहीं जा सकते थे, लॉकडाउन के समय, ऑनलाइन कक्षाओं ने शिक्षण की व्यवस्था चालू रखी। इन उपायों से, बहुत सारी कम्पनियों व अनेकों सरकारी कार्यालयों का भी कुछ कार्य डिजिटल माध्यम से हुआ।


निश्चिततः डिजिटल प्रौद्योगिकी के द्वारा शिक्षा-व्यवस्था, सरकारी कार्यालयों, कम्पनियों आदि के कार्य चलते रहने से, अर्थव्यवस्था एवं विकास की यात्रा पर बहुत ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा।


डिजिटल प्रौद्योगिकी, से हमारी जीवनशैली में प्रत्यक्ष एवं सकारात्मक परिवर्तन हुये हैं। जो कार्य करने में पहले घंटों लगते थे, अब कुछ मिनटों में होना आरंभ हुआ। रेलवे में आरक्षण में समय की बचत, हम सबके सामने हैं। चाहे देश का विकास हो या व्यक्ति का विकास हो, तकनीक निश्चिततः लाभप्रद होती हैं। टेक्नॉलॉजी के कई नये नये आयाम, जैसे आर्टिफिसियल इन्टेलिजेन्स, रोबोटिक्स, आदि-आदि हमारी जीवनशैली में प्रवेश कर रहे हैं।


आज खरीदारी, बिल भरना आदि कार्य बहुत आसान हो गया हैं। स्मार्टफोन के माध्यम से दवाइयों की टाइमर सेटिंग से दवा लेने की याद दिलायी जाती हैं।


वस्तुतः हमारा मस्तिष्क यंत्र की तरह से कार्य करता हैं, परन्तु मस्तिष्क और हृदय की कार्यप्रणाली में अन्तर होता है। जब हम आत्महीन,हृदयहीन और भावहीन शब्दों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं तो उसका स्थायी प्रभाव नहीं होता।



शिक्षा प्रणाली पर दृष्टि डालने पर हमारा अनुभव है कि जब एक शिक्षक, अपने विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करते समय, विद्यार्थियों का ध्यान उस विषय पर पढ़ातें समय, शिक्षक के शब्द-उच्चारण के साथ ही साथ, उसकी प्रस्तुति का तरीका, भाव भंगिमायें, विद्यार्थियों के मन व मस्तिष्क पर अमिट प्रभाव छोड़ती है। खासकर कुछ प्रभावी शिक्षकों के शब्द व विषय टेप की भाँति मस्तिष्क में दर्ज रहतें हैं। कुछ रूचिकर विषयों पर अध्यापकों के क्लास रूम में पढ़ाये गये टॉपिक स्थायी रूप से जीवन भर नहीं भूलते हैं।


भारतीय परम्परा में गुरू या शिक्षक का महत्व अत्यन्त अधिक है। प्राचीन काल में ज्यादातर शिक्षा की वाचिक परम्परा थी, पीढ़ियों से यह ज्ञान की वाचिक परम्परा चलती रहती थी। श्लोकों व उनकी व्याख्या, क्रमबद्ध तरीके से पीढ़ियों से पीढ़ियों तक ज्ञान को सुरक्षित व संरक्षित रहा। भारतीय परम्परा में, गुरू के ज्ञानात्मक, विचारात्मक एवं भावनात्मक, तीनो प्रकार के प्रभाव से प्रभावित होकर शिष्य संस्कारवान होता है।



वस्तुतः डिजिटल माध्यम से कोई इंजीनियर या डॉक्टर आदि बन सकता है, परन्तु संस्कार तो गुरू से प्रत्यक्षतः ही मिल सकता है। याद करिए ‘‘दरस-परस‘‘ की हमारी परम्परा, मिलने-जुलने से लोगों में जो आत्मीय भाव पैदा होता है, वह वीडियो कॉलिंग के माध्यम से कभी नहीं हो सकता है। डिजिटल प्रौद्योगिकी कई बार हमें हृदयहीन, उदासीन, एवं स्वयं केन्द्रित भी बना रही है।


आज अनेक लोग फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, वीडियोगेम आदि में इतने ज्यादा व्यस्त हो जाते हैं, कि ऐसा लगता है कि उन्हें यह व्यसन जैसा हो गया है। स्थिति तो यह हो गयी है कि एक ही घर-परिवार के लोग, एक ही छत के नीचे होते हुये भी आपस में बहुत कम बात करते है। परस्पर संवाद की मात्रा परिवारजनों में कम होती जा रही है। जब लोगों की नींद, रात्रि में खुलती है तो मोबाइल उठाकर देखते हैं और अलग-अलग साइट पर स्क्रोलिंग शुरू कर देते हैं। अब लाइक व कमेंट में इतने व्यस्त हो जा रहें है कि दिनचर्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा ही उसे बना लिए है। हमारा दैनिक जीवन भी आज डिजिटल मक्कड़जाल में फँसता जा रहा है।



आदिकाल से ही यह शाश्वत सत्य यह है कि हर चीज के दो पहलू होते हैं। यह गुण व लाभ भी दे सकते हैं और अवगुण या नुकसान भी हो सकता है। यह तथ्य सदैव मनोमस्तिष्क में रखना चाहिए।


वस्तुतः डिजिटल संसाधनों का प्रयोग आवश्यकतानुसार ही किया जाना चाहिए। आज जबकि कोरोना काल समाप्त हो चुका हैं, फिर भी हम स्क्रोलिंग के मक्कड़जाल में उलझे हैं। कई बार ऐसा देखा जा सकता है कि बहुत से लोग इण्टरनेट मीडिया के किसी प्लेटफार्म पर किसी कार्य के लिए जाते हैं, फिर उसके बाद इधर-उधर की चीजों में समय खराब करते हैं। जिन चीजों या जानकारी की उन्हें जरूरत ही नहीं होती है, उसे खंगालने में लग जाते हैं। इस कारण उनका स्क्रीन पर बिताया गया समय बढ़ता जाता हैं। यदि आजकल की कुछ घटनाओं पर ध्यान दें तो हम निस्संदेह कह सकते हैं कि डिजिटल माध्यमों का सदुपयोग कम और दुरूपयोग ज्यादा हो रहा है। इसका दुरूपयोग यहाँ तक हो रहा है कि बहुत से लोगों को चिड़चिड़ापन, डिप्रेशन, बेचैनी, एकाग्रता में कमी, उग्रस्वभाव, लोगों के साथ व्यवहार में रूखापन दिखायी पड़ता है। इसके अतिरिक्त नेत्रों में कष्ट व बीमारियाँ भी कुछ लोगों में दिखायी पड़ती हे। खासकर छोटे-छोटे बच्चों में भी नेत्रों के कष्ट बढ़ रहें हैं, यह अत्यन्त चिन्ताजनक स्थिति है।


आजकल ऐसा भी देखा जा रहा है कि तीन-चार साल तक के छोटे बच्चों को दूध, नाश्ता, खाना इत्यादि देने के लिए, उन्हे मोबाइल दिखाया जाता हैं, मोबाइल दिखाते-दिखाते नाश्ता, दूध, भोजन का सेवन कराना, तात्कालिक रूप से ही नहीं वरन् बच्चे के पूरे जीवन हेतु इस व्यसन का आरम्भ कराया जा रहा है। घर के सदस्य अपने कार्य में व्यस्त रहते हैं तो छोटे बच्चे को मोबाइल पकड़ाकर, कौन सी आदत उनमें विकसित की जा रही है? यह सोचनीय विषय है।



संवेदना का प्रश्न, हरेक रिश्ते में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। घर, परिवार, समाज सभी संवेदनाओं के बिना सुचारू रूप से चल ही नहीं सकते है। संवाद में कमी और संवेदनाहीनता से घर, परिवार और समाज सभी में विश्रंखलन हो सकता है। इसलिए सभी को सजग रहने तथा खासकर नई पीढ़ी को समझाने की आवश्यकता है।


हमारी पीढ़ी की चिन्ता है कि बच्चे मोबाइल, कम्प्यूटर, लैपटाप मिलने के कारण, बच्चों का आपस में बातचीत करना, खेलना-कूदना आदि भूलते जा रहे हैं। हमारी समझा में यह नहीं आ रहा हे कि कोरोना काल में, जो

मोबाइल उनके हाथ में पकड़ा दिया, अब उसे वापस कैसे लिया जाय।


हम लोगो को अच्छी तरह से याद है कि जहाँ हम लोग जब विद्यालयों में खेल के क्लास की घंटी बज जाती थी तो दौड़कर खेल के मैदान में जाते थे। उस समय चित्रकला, वाद विवाद प्रतियोगिता, नाटक व संगीत प्रतियोगिता होती थी। उत्तर प्रदेश के सभी जिलों में जिला युवक समारोह व कमिश्नरी के स्पर पर मण्डलीय युवक समारोह आयोजित होते थे। सभी इण्टरमीडिएट विद्यालयों की टीमें आती थी, विभिन्न खेलों व सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रतियोगितायें आयोजित होती थी।


आज एक तरफ तो बच्चों के हाथों में इस तरह की अत्याधुनिक तकनीकें हैं, तो दूसरी तरफ वे लगातार उन्हें तरह-तरह के अपराधों का शिकार भी होना पड़ रहा है।



अब धीरे-धीरे संयुक्त परिवार व्यवस्था की टूटन और यूनिट फेमिली सिस्टम में ज्यादातर माता-पिता अपने-अपने दैनन्दिन कामों में व्यस्त रहते हैं। उनकी मजबूरी यह भी है कि काम और नौकरी न करें तो घर का खर्च कैसे चलेगा? इसी कारण से ऐसे परिवार के अधिकांश बच्चे, केयर सेन्टर या सहायिकाओं के भरोसे पल रहे हैं। पहले घरों में दादा-दादी, नाना-नानी रहते थे, अब उनकी अनुपस्थिति ने बच्चों को और भी अकेला कर दिया है। आखिर

रातदिन व्यस्त रहने वाले माता-पिता से, बच्चे बात भी किससे करें।


अब तो यह स्थिति है कि बच्चे कुछ कहना भी चाहते हैं, किसी बात की जिद भी करें तो उनकी बात या समस्या सुनने वाला कोई है भी या नहीं ? बच्चों को सामाजिक रूप से जागरूक करने के लिए भी मार्गदर्शन करने का समय भी आजकल के मातापिता के पास नहीं है। यह चिन्ताजनक स्थिति है।


इस टेक्नॉलॉजी का एक सकारात्मक पहलू विशेषतः रिटायर्ट लोगों और उम्रदराज लोगों के लिए हैं। आज बुजुर्ग लोग, जिनके बेटे/बेटी रोजगार के लिए अकेले रहते हैं, वे इण्टरनेट के जरिये अपने अकेलेपन को कुछ हद तक दूर कर रहें है। अपनी पसन्द के गीत, भजन, यूट्यूब पर कार्यक्रम, अद्यतन समाचार आदि से अपना समय गुजार लेते हैं। वाट्सएप्प आदि में रिटायर्ड लोग ग्रुप बनाकर एक-दूसरे व साथियों का कुशल क्षेम भी लेते रहते है। विशेषकर कोरोना काल में बुजुर्ग लोग इण्टरनेट के माध्यम से बच्चों, परिवार, मित्रों, सगे-सम्बन्धियों से जुड़े रहे। जहाँ एक बार बच्चे इण्टरनेट के बुरे प्रभावों को नहीं जानत,े वहीं वरिष्ठ नागरिक, इण्टरनेट के दुष्प्रभावों को अच्छी तरह जानते हैं। बुजुर्ग दादा-दादी, नाना-नानी अपने नाती-पोतों का इस दिशा में मार्गदर्शन कर सकते है।


जीवन को अनुभव, संस्कार वरिष्ठ नागरिकों के पास होते हैं, वे किसी पुस्तक के पन्नों में नहीं मिलते। अपने पूर्वजों के संस्कारों व अनुष्ठानों को इन्टरनेट के माध्यम से वरिष्ठजन, नई पीढ़ी को संप्रेषित कर सकते हैं। लोक संवेदनाओं व सामाजिक सरोकारों को डिजिटल प्रौद्योगिकी का साथ मिलने पर, वे परम्परायें आगे के लिए संरक्षित हो सकती है। कई देशज लोकगीत, बिरहा, कजरी, छठगीत, जो पहले पीढ़ियो से पीढ़ियो को मिलता था, अब इन्टरनेट व सोशल मीडिया के माध्यम से, नई पीढ़ी को मिल रहे है।



जरूरत इस बात की भी है कि नई पीढ़ी ने नई डिजिटल टेक्नालॉजी से जुड़ी जानकारी अपने बुजुर्गों से शेयर करें, उससे पीढ़ियों की आपस में दूरी कम होगी। इस प्रयास से बुजुर्गों का अकेलापन तो दूर होगा ही, साथ ही साथ वे मन से युवा जैसा अनुभव कर सकते है।


वस्तुतः सीखने की कोई उम्र की सीमा नही होती। कुछ लोग वकालत, होमियोपैथी, आध्यात्म, समाजसेवा आदि का ज्ञान सोशल मीडिया से प्राप्त कर रहे हैं। अनौपचारिक शिक्षा के साथ-साथ, अब भारत एक डिजिटल विश्वविद्यालय स्थापित करने को प्रयासरत है। इसके तहत इसके प्रमुख केन्द्र आई0आई0टी0 मद्रास (चेन्नेई) दिल्ली विश्वविद्यालय और इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) होंगे। इस सन्दर्भ में शिक्षा मंत्रालय के साथ, मारीशस, तंजानिया, घाना, जिम्बाम्बे, एवं लाओस आदि से उच्चस्तरीय बात हो चुकी है। इसके जरिये उच्चशिक्षा से वंचित अपने दूर-दराज क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को डिजिटल विश्वविद्यालय के माध्यम से इन्जीनियरिंग व मैनेजमेन्ट जैसे सभी विषयों के कोर्स भी संचालित होगे। यह एक महत्वपूर्ण पहल होगी।


जंगल के जीवन से कृषि-क्रान्ति, कृषि-क्रान्ति से औद्योगिक क्रान्ति और आज की डिजिटल क्रान्ति से मानव समाज की सर्वांगीण उन्नति व विकास की नई परिभाषा रच रही है। आवश्यकता इस बात की है कि समाज ‘‘नीर-क्षीर-विवक‘‘ के सिद्धान्त का ध्यान रखे।


लेखक -

ओम प्रकाश मिश्र

पूर्व प्राध्यापक, अर्थशास्त्र विभाग,

इलाहाबाद विश्वविद्यालय, एवं पूर्व रेल अधिकारी




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