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करिश्माई क्रिकेटर स्व. मांकड नवाजे गये!! तो क्या किया सचिन तेंदुलकर ने!!!



के. विक्रम राव


यादों की परतें पलटिये। पटल पर क्रिकेट की घटनाओं को आरेखित कीजिये, फिल्मरोल के सदृश। वहां दिखेगा एक ठिगना, गोलमटोल बॉलर। बस दस डग दौड़ कर वह गेंद उछालता है। बैट्समैन हिट लगाने बढ़ा तो चूकेगा, स्टम्प आउट होगा। और कही मारा तो कैच आउट! तो ऐसे लुभावने गेंदबाज थे महान कप्तान वीनू मांकड। इनके नाम पर गत रविवार (13 जून) को इंग्लैण्ड के विस्डन्स हाल आफ फेम (कीर्ति कक्ष) में एक भव्य समारोह हुआ। उन्हें मान का स्थान दिया गया। प्रत्येक खिलाड़ी के जीवन की यह चरम हसरत होती है। जीते जी नहीं तो, मरणोपरांत ही सही ऐसा गौरव मिले।


मांकड की जन्मस्थली जामनगर के महाराजा रंजीत सिंह (उनके नाम से रणजी ट्रॉफी है) ही प्रथम भारतीय खिलाड़ी थे, जो सन 1900 में इस सम्मान को पा चुके थे। सचिन तेन्दुलकर को मिलाकर सिर्फ छह अन्य गत 130 वर्षों (1890 से) में सम्मानित हुये है। हालांकि मेरी यह पोस्ट पचास पार वालों के लिये अधिक बोधगम्य होगी। वर्ना संदर्भ की किताबें पढ़ें, क्योंकि भारत का पश्चिम—गुजराती (सौराष्ट्र के जामनगर) का यह आलमी क्रिकेटर अपनी प्रज्ञा और भुजा की कारीगरी से बल्लाधारियों के छक्के छुड़ाता रहा। उन्हें छक्का लगाने का अवसर देना तो दूर।


खेल की क्या खासियत रही वीनू के


तो आखिर युवा मल्वन्तराय हिम्मतलाल उर्फ वीनू (स्कूली नाम) मांकड की विशिष्टता क्या रही? पद्मभूषण पुरस्कार से 1973 में नवाजे गये स्वर्गीय वीनू मांकड तीन अद्भुत कृतियों, बल्कि उपलब्धियों के लिये सदा स्मरणीय रहेंगे। पहला है कि सलामी बल्लेबाजों की जोड़ी (उनकी पंकज राय के साथ) द्वारा बनाये गये 413 रन का रिकार्ड (1956) आज तक, विगत साढ़े छह दशकों बाद भी, टूटा नहीं है। बरकरार है। इसमें 231 रनों का योगदान अकेले मांकड का था। यह विश्व कीर्तिमान है। दूसरी उल्लेखनीय कृति रही कि बिना किसी भी प्रकार की गेंद फेंके ही एक बल्लेबाज को उन्होंने आउट कर दिया था। आज भी यह अजूबा बना हुआ है। यह वाकया है सिडनी मैदान (आस्ट्रेलिया) का, 1948 का टेस्ट। वीनू मांकड बालिंग कर रहे थे, पड़ोस में खड़ा बल्लेबाज बिल ब्राउन हरबार गेंद फेंकने के पहले से ही रन लेने हेतु दौड़ने के लिये उचकने लगता था। एक—दो बार मांकड ने ब्राउन को सावधान भी किया कि गेंद हाथ से फेंके जाने के बाद ही दौड़ें। गोरा भला भूरे की बात कैसे से मानने लगा? खीझ कर मांकड ने पूरी बांह घुमाकर बजाये गेंद सीधे फेंकने के विकेट को मारा और गुल्ली (बेल्स) चटका दिये। ब्राउन तब तक क्रीज के बाहर निकल चुका था। अम्पायर ने उसे आउट दे दिया। फलस्वरुप आस्ट्रेलियाई मीडिया में मांकड की बड़ी आलोचना हुयी। टिप्पणी हुयी कि यह गैरवाजिब हरकत थी। पर क्रिकेट के भीष्म पितामह डोनाल्ड ब्रैडमेन ने मांकड का ही पक्ष लिया। उन्होंने नियमावली दिखायी और कहा कि यदि बैट्समैन लाइन के बाहर है तो आउट किया जा सकता है। इसी तारीख से आज तक इस तरह आउट करने का नाम ही ''मांकेडिंग'' पड़ गया। स्टंपिंग, हिट विकेट, बोल्ड, कैच, रन आउट आदि की भांति यह भी नये तरीके से आउट करने के तरीकों की सूची में जुड़ गया।



जब रोका गया मैच


उसी दौर की बात है। भारतीय टीम सिडनी में मैच खेल रही थी। तारीख थी 30 जनवरी 1948। तभी दिल्ली से खबर आई कि महात्मा गांधी की हत्या कर दी गयी है। मैच स्थगित हो गया। वीनू मांकड बाल्यावस्था से ही बापू को देखते—सुनते थे। उन्हीं की भांति बापू भी सौराष्ट्र के काठियावाड़ के ही थे। पोरबन्दर में स्थित बापू के जन्मस्थान से मांकड का जन्मस्थल (जामनगर) केवल सौ किलोमीटर दूर है।


कानपुर का ये किस्सा पता है आपको


एक यादगार वाकया कानपुर के मोदी स्टेडियम में कामनवेल्थ राष्ट्रों की संयुक्त टीम के साथ भारत का टेस्ट (14—18 जनवरी 1950) का था। वीनू मांकड के साथ सैय्यद मुश्ताक अली (इंदौर की होल्कर टीमवाले) सलामी बल्लेबाज थे। मुश्ताक अली ने यादगार 129 रन बनाये थे। उधर कामनवेल्थ टीम की ओर से वेस्टइंडीज के मशहूर अश्वेत खिलाड़ी फ्रैंक वारेल ने दोहरा शतक लगाया था। मांकड की गेंदों को काफी पीटा था। मगर बाद में वीनूभाई ने हेमू अधिकारी के साथ धीमी गति से बैटिंग कर मैच ड्रॉ करा दिया। वर्ना पराजय तय थी। लखनऊ से हम स्कूली छात्रों का दल कानपुर पहुंचा था। गैलरी से ही मैच देखने का वास्तविक लुत्फ आता है। मेरा अभी भी पक्का यकीन है कि गैलेरी के दर्शक, खासकर कानपुर वाले, जो टिप्पणियां और टोकाटोकी करते है, उससे ज्यादा सटीक व्यंग मैंने कहीं भी नहीं सुना। मैच के दौरान एक स्थूलकाय व्यक्ति हमारे सामने से गुजरा। पड़ोस में विराजे एक वयस्क दर्शक ने दोहा रचा : ''हाथी की कमर पर खत लाठी से लिखा था, कुर्बान जांऊ तेरी पतली कमर पर।'' हाजिर जवाबी पर वाह वाही खूब लुटाई गयी।


के. विक्रम राव (वरिष्ठ पत्रकार)
के. विक्रम राव (वरिष्ठ पत्रकार)

गैलरी में तभी अचानक खबर व्यापी कि मुश्ताक अली के साथ उनकी महिला मित्र पुष्पा हंस भी बम्बई (तब बालीवुड नहीं कहलाता था।) से पधारी हैं। उनकी फिल्में ''अपना देश'' (वी. शांतारामकृत) और ''शीश महल'' (सोहराब मोदीकृत) टिकट घर पर धमाल मचा चुकी थी। उनकी चाहत के कारण मुश्ताक मियां का रुतबा दर्शकों में बढ़ गया क्योंकि पंजाबी—हिन्दी फिल्मों की यह अदाकारा लाहौर आकाशवाणी की ख्याति गायिका पुष्पाहंस कपूर उनकी संगिनी जो थी। हालांकि बाद में उन्होंने कर्नल हंसराज चोपड़ा से शादी कर ली। राष्ट्रपति ने पुष्पाजी को पद्मश्री से (1973) नवाजा। मगर ''शीश महल'' की इस अभिनेत्री ने कानपुर टेस्ट को यादगार बना डाला। यह फिल्म शम्स ''लखनवी'' की कहानी पर बनी थी। नसीम बानो (सायरा की अम्मा) इसमें नायिका थी।


फिलहाल आज इस दौर में फिल्मी अभिनेत्रियों के पाणिग्रहण हेतु पहली पसंद क्रिकेटर (विराट कोहली—अनुष्का) ही होते है। मगर गुजराती सज्जन वीनू मांकड ने अपने सजातीय से ही सप्तपदी रचायी थी। उनके दो पुत्र अशोक तथा राहुल हुये। दोनों क्रिकेटर थे। वीनू मांकड के नाम पर शेषाराव वानखेड़े स्टेडियम के निकट मुम्बई में एक सड़क भी है। मांकड के खेल वाले समाचार की सात दशक पूर्व छपी रपट मुझे भलीभांति याद हैं। सर्वाधिक आकर्षक शीर्षक वाला था, पटना के दैनिक ''सर्चलाइट'' (अब हिन्दुस्तान टाइम्स) में : "Mankand's marvel ties down tourists" (मांकड के चमत्कार ने विदेशी बल्लेबाजों को अचंभित किया)। वे मेरे गरदनीबाग में पटना हाईस्कूल के दिन थे। मेरे सम्पादक—पिता खुद क्रिकेट—प्रेमी (स्व. श्री के.रामा राव) ने यह शीर्षक दिया था। वीनू मांकड इन्हीं चमत्कारों के लिये सदैव याद रहेंगे।


विस्डन्स हाल् आफ फेम पुरस्कार के लिए वीनूभाई के परिवार को अभिनन्दन।


K Vikram Rao



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