दस साल तक मन मसोस कर सब कुछ सहती रही संगत को जब अपने गुरु का साथ मिला तो दिव्यानंद स्पिरिचुअल फाउंडेशन संभाल रहे प्रबंधकों की कलई खुल गई।
स्वामी दिव्यानंद जी महाराज के उत्तराधिकारी देवेंद्र मोहन भैया जी दस वर्ष के बाद भारत लौटे हैं। बीते वर्षों में संस्था के मिशन को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी संस्था के डायरेक्टर्स पर थी। बरेली पहुंचे पूज्य देवेंद्र मोहन भैया जी ने भोजीपुरा, मणिनाथ और आवंला तहसील के बझेड़ा आश्रम का दौरा किया। भैया जी को सामने देख कर बीते दस वर्षों से उनका इंतजार कर रही संगत और संत्संगियों के सब्र का बांध टूट गया।
कुप्रबंधन के चलते अव्यवस्थाओं के शिकार हुए आश्रमों में जनसेवा के जितने भी कार्य हुआ करते थे उनमें ताले पड़े मिले। आश्रम से जुड़ी संगत ने बताया कि 2012 में जब तक भैया जी काम संभाल रहे थे कई प्रकार के सामाजिक सरोकारों से जुड़े कार्य हुआ करते थे जो उनके जाने के बाद धीरे धीरे बंद हो गए।
बंद हो गया बच्चों को शिक्षालय
बरेली निवासी और आश्रम से लगातार जुड़े रहे वयोवृद्ध व्यवस्थापक श्रीराम जी के सहायक जयंत कुमार ने बताया मणिनाथ आश्रम में स्वामी दिव्यानंद जी के मिशन को आगे बढ़ाते हुए उनके उत्तराधिकारी देवेंद्र मोहन जी की प्रेरणा से दिव्यानंद विद्या मंदिर, उच्चतर माध्यमिक विद्यालय चला करता था। जहां बहुत ही सामान्य फीस देकर बच्चों को पढ़ाया जाता था। बच्चों को पढ़ाने के लिए बहुत योग्य अध्यापक रखे गए थे। हर साल बच्चों की संख्या में इजाफा होता था। लेकिन 2012 में भैयाजी के जाने के बाद मैनेजमेंट ने हर व्यवस्था का बंटाधार कर दिया। मैनेजमेंट के कुप्रबंधन का शिकार हुआ दिव्यानंद विद्यामंदिर 2014 आते आते बंद हो गया। आज हालत ये है कि देखरेख के अभाव में स्कूल की बिल्डिंग भी जर्जर हो चली है। कक्षाओं में टाइल्स टूटी पड़ी हैं। कई कमरे तो कई वर्षों से खुले तक नहीं हैं। स्कूल का फर्नीचर भी गायब हो चुका है। जो मेज-कुर्सी बची हैं उन्हें दीमक चाट
रहे हैं। जो विद्या मंदिर माध्यमिक से इंटरमीडिएट होने जा रहा था उसमें ताला पड़ गया।
अस्पताल पर पड़ा है ताला
इसी प्रकार आश्रम में एक चैरिटिबल अस्पताल भी चला करता था। जहां एक रुपए में पर्चा बनता था और सिर्फ पांच रुपए में दवा दी जाती थी। गरीब परिवारों के लिए चैरिटिबल अस्पताल किसी वरदान से कम नहीं था। देवेंद्र मोहन जी के जाने के बाद डायरेक्टर्स अस्पताल भी नहीं संभाल पाए। जो डॉक्टर अस्पताल में मरीजों को देख कर दवा लिखते थे उनकी छुट्टी कर दी गई और अस्पताल पर ताला मार दिया गया।
सिर्फ इतना ही नहीं आश्रम की कुछ दुकाने भी किराए पर दी गईं थीं। जिस पर अब एक प्रकार से दुकानदारों ने कब्जा ही जमा लिया है। ज्यादातर दुकानदारों ने किराया देना भी बंद कर दिया है। आश्रम से जुड़े लोगों का तो यहां तक कहना है कि ये हालात बगैर मैनेजमेंट की मिलीभगत के नहीं बन सकते। जिन दुकानों के किराए से आश्रम में कई सेवाकार्य आगे बढ़ाए जाते थे अब ना तो वहां से किराया ही विधिवत आता है और ना ही सेवाकार्य हो पाते हैं।
सेवादान में गोलमाल
जयंत ने बताया कि उनके पिता श्रीराम जी ने अपना पूरा जीवन दिख रही इमारत को बचाने में लगा दिया। भैयाजी की गैरमौजूदगी में उन्होंने कई बार संस्था के डायरेक्टर्स और प्रबंधन के जिम्मेदार लोगों से संपर्क किया। कई बार स्थितियों को सुधारने के लिए गुहार लगाई लेकिन उनकी एक ना सुनी गई। स्वामीजी के शरीर छोड़ने के बाद तो स्थिति और भी बुरी हो गई। जहां हजारों की संगत आया करती थी वहां महज कुछ सौ पचास लोग ही कभी कभार सत्संग में आते थे। संगत की तरफ से दी जाने वाली सेवा का भी सही उपयोग नहीं हुआ। जो सेवा संत्संगी दे जाते थे उसे तुरंत संत कृपाल नगर संडीला मंगा लिया जाता था। वहां सेवाधन का क्या होता रहा इसके बारे में किसी को कोई जानकारी तक नहीं दी जाती थी।
मणिनाथ आश्रम के आसपास के लोगों का कहना है कि बीते कई वर्षों से यहां सूनापन ही रहा है। पहले आश्रम में चलने वाले अस्पताल के डाक्टरों से आसपास के लोगों को भी अच्छी दवाएं मिल जाती थीं। आश्रम में आईकैंप भी लगता था जहां आंखों का मुफ्त आपरेशन तक कराया जाता था।
सही मायनों में प्रबंधन ने आश्रम की गतिविधियों को बीते दस सालों में मिशन से पूरी तरह भटका दिया है।
टीम स्टेट टुडे
बरेली
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