नई दिल्ली, 10 जनवरी 2023 : कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा पंजाब पहुंच चुकी है और अब केवल जम्मू-कश्मीर ही शेष है। एक तरह से यह यात्रा समापन की ओर बढ़ रही है, लेकिन यह कहना कठिन है कि उसने हासिल क्या किया है? आम धारणा है कि अपनी गंवाई सियासी जमीन को हासिल करने के लिए ही पार्टी के नेता राहुल गांधी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ लेकर निकले हैं। प्रतीत होता है कि यात्रा लेकर निकालने से पहले न तो कांग्रेस ने और न ही राहुल ने वस्तुस्थिति का सही आकलन किया। सीधी भाषा में कहें तो उन्होंने बीमारी की सही पड़ताल किए बिना ही यात्रा के रूप में उसका गलत उपचार तलाश लिया है।
यह यात्रा कई कारणों से विवादों में भी रही। विवाद के केंद्र में राहुल गांधी के बयान अधिक रहे। इस बीच दो राज्यों में विधानसभा चुनाव और दिल्ली में नगर निगम के चुनाव भी निपट गए, जिनमें गुजरात और दिल्ली में तो कांग्रेस का सफाया हो गया। हिमाचल में मिली सत्ता में भी कांग्रेस की मेहनत कम और भाजपा की आंतरिक गुटबाजी की अहम भूमिका रही। गुटबंदी हिमाचल कांग्रेस में भी कम नहीं है और जिस प्रकार कांग्रेस आलाकमान का इकबाल घट रहा है, उसे देखते हुए हिमाचल में भी कांग्रेस सरकार में खींचतान के बेलगाम होने की अटकलें शुरू हो गई हैं। पहले शीर्ष नेताओं की लोकप्रियता से जो वोट मिलते थे, उससे ऐसी गुटबंदी आसानी से दबा दी जाती थी, लेकिन अब वह बात नहीं रही।
1984 में लोकसभा की 404 सीटें हासिल करने वाली कांग्रेस 2019 के चुनाव में केवल 53 सीटों पर सिमटकर रह गई तो इसके क्या कारण रहे। क्या कांग्रेस की राजनीतिक दुर्गति इसी कारण हुई कि अतीत में उसके किसी नेता ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ नहीं की? आखिर क्यों आज कांग्रेस अस्तित्व के संकट से जूझ रही है? उसे इन सवालों के जवाब तलाशने होंगे। यह इसलिए और महत्वपूर्ण है, क्योंकि कांग्रेस का अब एक ऐसे नेता से मुकाबला है, जिसने अपनी लोकप्रियता और पार्टी संगठन की क्षमता के बल पर लगातार दो बार लोकसभा चुनाव में बहुमत पाया। ऐसी चुनावी उपलब्धि आजादी के बाद किसी अन्य प्रधानमंत्री को नहीं मिली। जवाहरलाल नेहरू यदि लगातार तीन बार प्रधानमंत्री बने तो उनकी और पार्टी की उस उपलब्धि के पीछे राज्यों के कांग्रेसी क्षत्रपों की शक्ति भी होती थी। वे अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा थे और खासे लोकप्रिय भी रहे। वे सिर्फ नेहरू पर निर्भर नहीं थे। हालांकि नेहरू की लोकप्रियता पूरे देश में थी। दोनों एक दूसरे को अपने समर्थन की ताकत का लाभ पहुंचाते थे। इस पृष्ठभूमि में नरेन्द्र मोदी की निजी लोकप्रियता और प्रधानमंत्री के रूप में उनकी उपलब्धियां देखें तो कांग्रेस के लिए उनका मुकाबला असंभव होता जा रहा है।
दूसरी ओर, कांग्रेस न तो अपनी अवनति के असली कारणों की पहचान कर रही है और न ही उन्हें दूर करने के कोई ठोस उपाय। कांग्रेस की यह दुर्दशा एक दिन में नहीं हुई है। उसकी लोकप्रियता घटने की शुरुआत राजीव गांधी के दौर के बेहद चर्चित बोफोर्स घोटाले से हो गई थी। सोनिया गांधी-राहुल गांधी के नेतृत्व में गलत निर्णयों के चलते कांग्रेस ऐसी स्थिति में पहुंचा दी गई, जहां से उसका उबरना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। इस अवनति के लिए कोई और नहीं, बल्कि कांग्रेस के नीति निर्धारक ही अधिक जिम्मेदार हैं। इसी के चलते 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटें 404 से घटकर 197 रह गईं। उसके बाद 1991 के चुनाव के दौरान राजीव गांधी की हत्या हो गई। उस हत्या की वजह से उपजी सहानुभूति के कारण कांग्रेस की सीटें बढ़कर 232 हो गईं। हालांकि फिर भी वह बहुमत से दूर ही रही। वह गठबंधन के दम पर 2004 में सत्ता में आई तो भी उसने भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लगाया। उलटे उसे और बढ़ाया। ऐसे में, भ्रष्टाचार के प्रति अपने रुख-रवैये में परिवर्तन किए बिना कांग्रेस जनता का विश्वास दोबारा कैसे प्राप्त कर सकती है? 1990 में जब मंडल आरक्षण आया तो राजीव गांधी ने उस संवेदनशील मुद्दे पर ऐसा उलझाऊ बयान दिया, जिससे पिछड़े वर्ग को लगा कि कांग्रेस उनके साथ नहीं है। इससे भी कांग्रेस का जनसमर्थन कुछ और घटा। ऐसा जनसमर्थन किसी भारत जोड़ो यात्रा या किसी अन्य राजनीतिक कसरत से वापस हासिल होने वाला नहीं है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि मनमोहन सिंह सरकार सोनिया गांधी के निर्देशन में चल रही थी। उस कालावधि में दो ऐसी बातें हुईं, जिसने कांग्रेस की रही-सही लुटिया भी डुबो दी। एक तो उस सरकार में तमाम भीमकाय घोटाले हुए और दूसरे मनमोहन सिंह ने 2006 में सार्वजनिक रूप से यह कह दिया कि ‘देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों (संकेत मुसलमानों को समझिए) का होना चाहिए।’ मनमोहन सरकार के दौरान तमाम ऐसे और बयान भी आए, जिससे समाज में जितना ध्रुवीकरण हुआ, कांग्रेस उतनी ही कमजोर होती गई।
2014 के लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक पराजय के बाद सोनिया गांधी ने एक कमेटी बनाई। एके एंटनी उसके मुखिया थे। उनसे कहा गया कि वह हार के कारणों का पता लगाएं। पड़ताल में एंटनी ने अन्य बातों के साथ यह भी कहा कि मतदाताओं को लगा कि कांग्रेस का अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिमों की ओर कुछ अधिक ही झुकाव है। हालांकि बाद की घटनाओं से यही लगा कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने एंटनी रिपोर्ट से कुछ नहीं सीखा। दरअसल, कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में कुछ नया सोचने की क्षमता ही नहीं दिखती। जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं, वहां भी कुछ ऐसा करने का माद्दा कांग्रेस नेतृत्व में नहीं दिखता, जिससे मतदाताओं को प्रभावित किया जा सके।
कांग्रेस के उलट मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार सामाजिक विषमता, भ्रष्टाचार और आतंकवाद के विरुद्ध जिस प्रकार का अभूतपूर्व अभियान छेड़े हुए हुए है, वह अधिकांश लोगों को रास आ रहा है। ऐसे में, कांग्रेस की चुनावी संभावनाएं लगातार सिकुड़ती जा रही है। इस बीच कभी कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व सांगठनिक चुनावों का ढकोसला कर तो कभी भारत जोड़ो यात्रा के जरिये किसी चमत्कार की आस लगाए बैठा है। यह वही बात हुई कि तकलीफ सिर में है और इलाज पैरों का किया जा रहा है।
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