के. विक्रम राव
दो राजनीतिक भूचाल साढ़े चार दशक पूर्व आज ही के दिन (बृहस्पतिवार, 12 जून 1975) उत्तर तथा पश्चिम भारत में आये थे। उससे दुनिया भी हिल गयी थी। मगर दिल्ली बिल्कुल ही बदल गयी थी। एक इलाहाबाद में हुआ तो दूसरा अहमदाबाद में। दोनों घटनास्थलों के बीच फासला है बारह सौ किलोमीटर का। संगम तट से साबरमती तट तक। मगर लोग इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा इंदिरा गांधी को भ्रष्टाचार का दोषी मानकर, उनका लोकसभा चुनाव (मार्च 1971) निरस्त कर देने को ही याद रखते हैं। छह वर्षों के लिये अयोग्य करार दी गयीं थीं। तब फिर क्या हुआ? भारत में सभी जानते हैं।
मगर अहमदाबाद वाली घटना तो ''आमजन बनाम इंदिरा—कांग्रेस'' थी। ज्यादा महत्व की थी। वह प्रधानमंत्री की निजी सियासी पराजय थी। पहली बार 1952 से प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस पार्टी बहुमत नहीं पा पायी। इस ऐतिहासिक परिदृश्य का विवरण कम प्रसारित किया गया है। गुजरात के बाहर चर्चा भी कम ही हुयी है। जून 12 के दिन 1975 में गांधीनगर में जनता मोर्चा की सरकार बनीं थी। इसमें संस्था कांग्रेस (एस. निजालिंगप्पा), भारतीय जनसंघ (आडवाणी—अटल बिहारी वाजपेयी), संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (जार्ज फर्नांडिस) और भारतीय लोकदल (चरण सिंह) का एक ही गठबंधन था। चुनाव भी कांग्रेस बनाम सबका सीधा मुकाबलावाला था। इंदिरा गांधी ने चुनावी अभियान में कीर्तिमान रचा था। महीने भर तक करीब 160 विधानसभा क्षेत्रों में मई—जून की तपती दुपहरिया में प्रधानमंत्री की अनेक सभायें हुयीं थीं। पर उनकी पार्टी 182 सीटों में से केवल 75 ही जीत पायी। बहुमत नहीं मिला। जनता मोर्चा 86 सीटें जीती और चिमनभाई पटेल के किसान—मजदूर लोकपक्ष के 12 विधायकों के साथ मिलकर सर्वप्रथम विपक्षी दलों की सरकार बनायी थी। कई मायने में फरवरी 1977 वाली केन्द्रीय जनता पार्टी का यह ''गुजरात जनता मोर्चा'' प्रथम अवतार था।
गुजरात की दृष्टि से जून बारह क्यों यादगार है ? यह दिलचस्प है। इसे जानने के लिये 1973 के उस व्यापक जनसंघर्ष का विश्लेषण करना होगा, जो 1931 के दाण्डी मार्च के बाद गुजरात में अपने किस्म का पहला था। इसका महत्व खुद लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने बिहार आंदोलन के पूर्व कई बार निरुपित किया था कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध यह आन्दोलन और सम्पूर्ण क्रान्ति के लिये उन्हें प्रेरणा गुजरात के नवनिर्माण छात्र आन्दोलन से ही मिली थी। दक्षिण गुजरात के औद्योगिक नगर सूरत की एक विशाल जनसभा (1974) में लोकनायक ने इसको उजागर किया था। तब मैं ''टाइम्स आफ इण्डिया'' का बड़ौदा संवाददाता था और गुजरात तथा बिहार के इन जनसंग्रामों के बारे में जानने, अध्ययन करने तथा विश्लेषण करने का समुचित अवसर मुझे मिला था। आपातकाल (1975-77) में मेरी नजरबंदी के पूर्व तक मैं इन सब पर विस्तार से ''दिनमान'' तथा ''धर्मयुग'' में लिखता भी रहा।
लोकनायक को रोशनी दिखानेवाले गुजरात का नवनिर्माण आन्दोलन आखिर जन्मा कैसे ? एक सिन्दुरी शाम (1973) को साबरमती आश्रम रोड पर स्थित टाइम्स आफ इण्डिया कार्यालय की खिड़की से मैंने देखा कि छात्रों का एक विशाल जुलूस नारे बुलन्द करते चला आ रहा हैं। बाहर आकर मैंने प्रदर्शनकारी नेताओं से पूछा कि माजरा क्या है? उनकी मांग थी कि साल भर पहले (मार्च 1972) निर्वाचित गुजरात विधान सभा भंग की जाये। उनका कारण वाजिब लगा। युक्तिसंगत था। उनके होस्टल का मैस बिल अचानक बढ़ गया। क्योंकि मूंगफली तेल महंगा हो गया था। वजह थी कि पश्चिम गुजरात (सौराष्ट्र) के तेल उत्पादकों ने दाम दूने बढ़ा दिये थे। छात्रों का आरोप था कि विधानसभा निर्वाचन (1972) में इन तेल उत्पादकों ने इन्दिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी के करोड़ों रूपये का चुनावी चन्दा दिया था। पंडित उमाशंकर दीक्षित इससे अवगत थे। अत: अब वसूलने की घड़ी व्यापारियों द्वारा आ गई थी। बस प्रतिकिलों तेल के दाम बढ़ा दिये गये। चूंकि हास्टल में मूंगफली के तेल से ही भोजन बनता है, अतः छात्रों का मैस बिल भी बढ़ गया। प्रदर्शनकारियों के पुरोधाओं की मांग थी कि चुनावी भ्रष्टाचार से कमायी गयी धनराशि से निर्वाचित हुये सारे विधायक त्यागपत्र दें और विधानसभा भंग की जाये। नया ईमानदार जनमत पायें।
यह अहमदाबाद का छात्र आन्दोलन पूरे राज्य में फैला। तरीका बड़ा गांधीवादी था। प्रत्येक विधायक के आवास पर छात्र बैठ जाते और विधानसभा अध्यक्ष को त्यागपत्र भेजने पर ही उनका धरना खत्म होता। कई विधायक भूमिगत हो गये थे, तो आन्दोलनकारियों ने मुकाबले का नया तरीका खोजा। वे पड़ोसियों से अनुरोध कर विधायकों के परिवारजनों का हुक्कापानी बन्द कराते। पत्नी अपने विधायक पति से कहती कि मुहल्ले के बच्चों ने उनके बच्चों के साथ खेलने से मना कर दिया। भाजीवाला, धोबी, डाकिया, नाई, आखिर में जमादार तक ने विधायक के आवास पर जाना बन्द कर दिया। विवश विधायकजी ने त्यागपत्र भेज दिया। अध्यक्ष से विधायक ने आग्रह किया कि उनकी सदस्यता खत्म कर दें। दिलचस्प घटना तो बड़ौदा से अहमदाबाद जानेवाली राज्य परिवाहन निगम की बस में हुई। कांग्रेसी विधायक, अस्सी—वर्षीय माधवालाल शाह को बस यात्रियों ने पहचान लिया। उन सब 54 मुसाफिरों ने कंडक्टर से विधायक शाह को उतारने की मांग की। उसके मना करने पर सभी अन्य यात्री उतर गये। अकेले माधवलाल शाह बैठे रहे। तब ड्राइवर ने कांग्रेसी विधायक की अन्तर्चेतना से बात की कि, ''माधवभाई, आप तो बापू के दाण्डी मार्च में साथ थे। अब भ्रष्टाचार के इन गांधीवादी विरोधियों की प्रार्थना भी स्वीकारें।'' शाह बस से उतर गये। विधायकी भी छोड़ दी। संघर्ष के तीसरे सप्ताह तक विधानसभा तीन चौथाई खाली हो गई। संवैधानिक संकट उभरा। राज्यपाल ने कोरम के अभाव में विधानसभा भंग कर दी। नवनिर्माण छात्र आन्दोलन सफल तो हो गया था। नतीजन राष्ट्रपति शासन (कांग्रेस का अप्रत्यक्ष राज) थोप दिया गया।
मगर अब गुजरात विधानसभा को पुनर्जीवित करने में खीझ से आप्लावित इंदिरा गांधी ने तनिक भी रुचि नहीं दिखायी। एक युगांतकारी घटना की याद आती है। मोरारजी देसाई आमरण अनशन पर बैठे। विवश होकर इंदिरा गांधी ने गुजरात विधानसभा का चुनाव (अप्रैल 1975) को कर दिया। तय था कि इंदिरा कांग्रेस जीतेगी। मगर जनता मोर्चा का संयुक्त चुनाव अभियान भी विलक्षण था। संसोपा की ओर से मधु लिमये, जार्ज फर्नान्डिस, मृणाल गोरे, मधु दंडवते आये। अटल बिहारी वाजपेयी तब बरगद (संसोपा) और जार्ज फर्नान्डिस दीपक (जनसंघ) के लिये वोट मांग रहे थे। जनसंघ और संसोपा मिलकर सूत कातती महिला (संस्था कांग्रेस) का समर्थन कर रहे थे। मगर वाह री किस्मत! बहुमत से जीतकर भी जनता मोर्चा की सरकार गिरा दी गयी। इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला उसी दिन आया। तेरह दिन बाद इमरजेंसी घोषित कर दी गयी। एक दिन मैंने देखा कि मेरे बड़ौदा जेल बैरक में भूतपूर्व हो चुके मुख्यमंत्री (बाबूभाई जशभाई पटेल) कैदी बन कर आ गये। वे पूर्ण गांधीवादी थे। मगर हम सब पर बलपूर्वक इंदिरा सरकार को डाइनामाईट से उखाड़ने का इल्जाम था। सजा थी फांसी। और फिर इमरजेंसी तो आ ही गयी थी।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री को अवैध सांसद करार दिया था। दोनों घटनाएं 12 जून को ही होनी थी। आज के दिन।
K Vikram Rao
Email: k.vikramrao@gmail.com
コメント