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आईएफडब्ल्यूजे के मेजबान जगमोहन का जाना



के. विक्रम राव


कुशल प्रशासक और जनप्रिय राजनेता श्री जगमोहन, जिनका आज दिल्ली में निधन हो गया, को इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (आईएफडब्ल्यूजे) के हजारों श्रमजीवी पत्रकार साथी बड़ी स्निग्ध आत्मीयता और भावभीनी रिश्तों के लिये सदैव याद रखेंगे। कश्मीर की जनता, खासकर पंडित महिलायें, उन्हें कभी भूल नहीं पायेंगी। इसका कारण है। धरा पर इस स्वर्ग के पिछड़े और शोषित जन के त्वरित विकास तथा सुरक्षा हेतु वे क्रियाशीलता रहे। एक बार कश्मीर की यात्रा पर मुझे सुदूर पहलगाम में कुछ लोग मिले थे। उनकी राय थी कि यदि विधानसभा का निर्वाचन हो तो एक अतिरिक्त डिब्बा रखा जाये। नाम हो ''प्रत्याशी जगमोहन''। फिर समझाया कि कई डिब्बे तैयार रखें क्योंकि सब शीघ्र भरते जायेंगे। ऐसी थी इस मनोनीत राज्यपाल की लोकप्रियता।



उन्होंने श्रीनगर में सितंबर 1986 में आईएफडब्ल्यूजे के अधिवेशन का उद्घाटन किया था। यह भी एक संयोग था। मेरे संपादक इन्दर मलहोत्रा (टाइम्स आफ इंडिया) ने अपने इस अग्रज से परिचय कराया। छूटते ही मैंने कहा, ''आपके (संजय गांधी) राज में मुझे तिहाड़ जेल के सत्रह नम्बर वार्ड में रखा गया था। फांसी की सजा की अभियोजन पक्ष द्वारा मांग थी।'' वे सकपकाये पर फिर पूछा : ''कुछ कर सकता हूं आपके लिये?'' अंधा क्या मांगे दो नेत्र। छूटते ही मैंने कहा कि : ''श्रीनगर में आईएफडब्ल्यूजे का राष्ट्रीय अधिवेशन करा ​दीजिये।'' वे तब कश्मीर के गवर्नर थे। उन्होंने मुझे विस्तृत चर्चा हेतु श्रीनगर बुलाया। अफसरों की बैठक की। तभी आदत से मजबूर मैंने श्रमसचिव से पूछा कि, ''क्या जम्मू—कश्मीर के श्रमजीवी पत्रकारों और प्रेस कर्मिकों को पालेकर बोर्ड के वेतनमान मिल रहे हैं ?'' स्वयं राज्यपाल ने पूछा कि, ''और क्या वंचनाये हैं?'' पता चला कि वहां पत्रकारों को न तो नियुक्ति पत्र मिलता है, न काम के घंटे तय हैं, न कोई बोनस और पीएफ दिया जाता है। मतलब जागीदारों वाली व्यवस्था थी। माह भर बाद अपनी दूसरी यात्रा पर सम्मेलन की व्यवस्था देखने मैं गया तो भारी संख्या में पत्रकार और कर्मी मिले। तब तक मीडिया उद्योग में कानून का राज राज्यपाल ने ला दिया था। तय था कि हमारा अधिवेशन अपार पैमाने पर सफल होगा, और हुआ भी। सभी 32 राज्यों से करीब 550 प्रतिनिधि आये थे। पांच दिन के सम्मेलन बाद पूरी घाटी और वैष्णवदेवी मंदिर के दर्शन कराये।


जगमोहनजी ने देवी अपार कृपा प्राप्त की होगी क्योंकि अगम्य मंदिर मार्ग को सुन्दर और सुविधाजनक उन्होंने बनाया। जब पहली बार मई 1971 में वैष्णवदेवी मैं गया था तो उखड़े ईंट—पत्थर से भरा ऊबड़—खाबड़ रास्ता था। करीब चौदह घंटे पैदल चलने में लगे। आज वायु मार्ग से पन्द्रह मिनट लगते हैं। शेखों के राज में वैष्णवदेवी तीर्थ स्थल इरादतन बीहड़ बना रहा।




जगमोहनजी के हमारे अधिवेशन में शामिल होने से जुड़ी दो ऐतिहासिक घटनाओं का जिक्र कर दूं। पहला तो यही ​कि मुख्यमंत्री डा. फारुख अब्दुल्ला को बर्खास्त कर केन्द्र सरकार ने जगमोहन को राज्यपाल बनाया था। हमारे आईएफडब्ल्यूजे अधिवेशन में अध्यक्ष के नाते मैंने राज्यपाल द्वारा उद्घाटन कराया। अपने पुराने मित्र डा. फारुख अब्दुल्ला को मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया। मंच पर दोनों विशिष्ट व्यक्तियों के बीच में अध्यक्ष मैं बैठा था। इन दोनों महापुरुषों में दुआ सलाम तक बन्द थी। मुझ में मेरा रिपोर्टर जग गया। मैं जानबूझकर उठा तथा दोनों के मध्य सामीप्य बनाया। संवाद होना ही था। फिर रात्रिभोज में भी मुलाकात हुयी। मैं एक अदना रिपोर्टर इतना दावा तो कर सकता हूं कि दोनों राजनेताओं के बीच संवादहीनता की स्थिति खत्म करायी। कुछ महीनों बाद डा. फारुख अब्दुल्ला को राज्यपाल ने पुन: मुख्यमंत्री की शपथ दिलायी। श्रीनगर में निर्वाचित सरकार लौट आयी।



के.विक्रम राव (वरिष्ठ पत्रकार)
के.विक्रम राव (वरिष्ठ पत्रकार)

अधिवेशन के अंतिम दिन आईएफडब्ल्यूजे का पारंपरिक जुलूस श्रीनगर की सड़कों पर निकला। सत्रह भाषायें बोलने वाले देशभर से आये सैकड़ों पत्रकार दिलचस्प नारे लगा रहे थे : ''कश्मीर हो या गौहाटी, अपना देश अपनी माटी।'' एक अन्य नारा था : ''जहां हमारा लहू गिरा है वह कश्मीर हमारा है।'' बाद में एक वयोवृद्ध दर्शक मिलने आये और मुझे बताया कि 1947 के बाद पहली बार श्रीनगर की सड़कों पर भारत—समर्थक प्रदर्शन हुआ है। तब शेख अब्दुल्ला तथा जवाहरलाल नेहरु के नेतृत्व में जुलूस निकला था।


फिर जगमोहनजी दिल्ली आ गये। मेरी नजर में वह और ऊंचे हो गये, जब उन्होंने 1998 तथा 1999 में दिल्ली से लोकसभा निर्वाचनों में आरके धवन को हराया। यही धवन थे जो इंदिरा—संजय गांधी राज में भारत के तानाशाह बन बैठे थे। दो लाख विरोधियों को जेल में नजरबंद कर दिया था। नरेन्द्र मोदी ने कश्मीर से धारा 370 का निस्तारण करने के पूर्व गृहमंत्री अमित शाह को जगमोहनजी के घर भेजा था परामर्श हेतु।


घाटी में जगमोहनजी का रुतबा इतना था कि उनके सर कलम करने के लिये पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो का निर्देश था। बेनजीर ने उनका नाम बदलकर ''भागमोहन'' कर दिया था। उन्हें कश्मीर से भगाना ही मकसद था। ऐसे राष्ट्रवादी को आईएफडब्ल्यूजे का सलाम।



K Vikram Rao

Email: k.vikramrao@gmail.com


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