केदारधाम हिंदू आस्था के सबसे बड़े केंद्रों में से एक है। यूं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर वर्ष केदारनाथ के दर्शन के लिए पहुंचते हैं लेकिन 2021 का मौका खास रहा। 5 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भगवान शिव के धाम केदारनाथ में आदि गुरु शंकराचार्य की मूर्ति का अनावरण किया। एक ही शिला काटकर बनाई गई शंकराचार्य की बारह फुट लंबी प्रतिमा का अनावरण कर पीएम ने मूर्ति के सामने बैठकर उनकी आराधना की।
केदार की महत्ता किसी से छिपी नहीं है। आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित केदारनाथ धाम करीब दो सौ साल तक बर्फ में दबा रहा।
पहले आप को बताते हैं कौन हैं शंकराचार्य
शंकराचार्य का जन्मकाल लगभग 2200 वर्ष पूर्व का माना जाता है। वहीं कुछ इतिहासकार का मानना है कि आदि शंकराचार्य का जन्म 788 ईसवीं में हुआ था और उनकी मृत्यु 820 ईसवीं में हुई थी।
आदि शंकराचार्य का जन्म केरल में कालपी 'काषल' नाम के गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम शिवगुरु भट्ट और माता का नाम सुभद्रा था। बताया जाता है कि उनके पिता ने शिव की दिनरात उपासना की, तब वह पैदा हुए थे। इसलिए उनका नाम शंकर रखा गया। जब वह तीन साल के थे उनके पिता का निधन हो गया।
शंकराचार्य कैसे बने सन्यासी
शंकर इतने ज्ञानी थे कि महज छह साल की उम्र में वह प्रकांड पंडित हो गए। 8 साल की उम्र में उन्होंने सन्यास ग्रहण कर लिया। कहा जाता है कि वह अपनी मां की इकलौती संतान थे इसलिए मां नहीं चाहती थीं कि वह सन्यासी बनें। एक दिन नदी में एक मगरमच्छ ने उनका पांव पकड़ लिया। शंकर ने मां से कहा कि अगर वह उन्हें सन्यास लेने की अनुमति नहीं देंगी तो मगरमच्छ उन्हें खा जाएगा। जैसे ही उनकी मां ने उन्हें अनुमति दी मगरमच्छ ने उनका पांव छोड़ दिया।
भारत के चार कोनों में स्थापित किए चार मठ
आदि शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना की थी। उत्तर दिशा में उन्होंने बद्रिकाश्रम में ज्योर्तिमठ की स्थापना की थी। पश्चिम दिशा के द्वारिका में शारदामठ की स्थापना की थी। इसकी स्थापना 2648 युधिष्ठिर संवत में की थी। दक्षिण में उन्होंने श्रंगेरी मठ की स्थापना की। पूर्व दिशा में जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन मठ की स्थापना की। जोशीमठ इलाके में यही वह जगह है जहां शंकराचार्य विलुप्त हुए थे।
आदि गुरु शंकराचार्य को भगवान शंकर का साक्षात् रूप माना जाता है। वह आठवीं सदी के भारतीय हिंदु दार्शनिक और धर्म शास्त्री थे। जिनकी शिक्षाओं का हिंदु धर्म के विकास पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा।
शंकराचार्य ने चारों दिशाओं का भ्रमण कर हिंदु धर्म का प्रचार प्रसार किया।
शृंगेरी शारदा पीठम
जगतगुरु आदि शंकराचार्य जी का यह पहला मठ है। इस मठ की स्थापना उन्होंने भारत के कर्नाटक राज्य के चिकमंगलुर नामक जिले में स्थित है। इस जिले के तुंगा नदी के किनारे इस को स्थापित किया गया है। इस मठ की स्थापना यजुर्वेद के आधार पर की गई है।
द्वारका पीठम
भारतवर्ष के गुजरात प्रदेश में द्वारका पीठ की स्थापना की गई है और इस पीठ की स्थापना आदि शंकराचार्य ने सामवेद के आधार पर की हुई है।
ज्योतिपीठ पीठम
इस मठ की स्थापना आदि शंकराचार्य जी ने उत्तर भारत में की थी । आदि शंकराचार्य जी ने तोता चार्य को इस मठ का प्रमुख बनाया था। इस मठ का निर्माण आदि शंकराचार्य ने अर्थ वेद के आधार पर किया है।
गोवर्धन पीठम
इस मठ की स्थापना भारत के पूर्वी स्थान यानी, कि जगन्नाथपुरी में किया गया था। यहां तक की जगन्नाथ पुरी मंदिर को इस मठ का हिस्सा ही माना जाता है। इस मठ का निर्माण आदि शंकराचार्य जी ने ऋगवेद आधार पर किया हुआ है।
आदि शंकराचार्य जी द्वारा चार पीठों की स्थापना एवं उनका हिंदू महत्व
आदि शंकराचार्य जी ने भारतवर्ष के चारों कोनों में वेदांत मत का प्रचार प्रसार किया और इन्होंने ही इन चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना भी की। हिंदू धर्म के अनुसार यदि कोई भी व्यक्ति इन चारों मठों की यात्रा कर लेता है, तो वह मोक्ष की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो जाता है।
शंकराचार्य का केदारनाथ से संबंध
शंकराचार्य ने चारों धाम की स्थापना की सनातन धर्म की फिर से स्थापना कर की। जब उनके कार्य पूरे हो गए तो उन्हें लगा कि जिस उद्देश्य से उनका जन्म हुआ था, वह उन्होंने पूरे कर लिए हैं। वह अपने शिष्यों के साथ केदारनाथ में दर्शन करने पहुंचे। यहां उन्होंने शिष्यों के साथ भगवान के दर्शन किए।
शिवलिंग के दर्शन के बाद आदि गुरु शंकराचार्य की भगवान शंकर से बात हुई। उन्होंने उनसे देह त्यागने की अनुमति ली। आदि शंकराचार्य मंदिर से बाहर आए। शिष्यों को रोका और कहा कि पीछे मुड़कर मत देखना। आदि शंकराचार्य यहां विलुप्त हो गए। जहां पर विलुप्त हुए उसी जगह पर शिवलिंग की स्थापना की गई।
ऐसा कहा जाता है कि जिस गुफा में वे प्रवेश किए थे, वहां वे दुबारा दिखाई नहीं दिए और यही कारण है, कि वह गुफा उनका अंतिम विश्राम स्थल माना जाता है।
उनका समाधि स्थल बनाया गया। 2013 में आई त्रासदी में यह समाधि स्थल बह गया था।
कैसा बना है शंकराचार्य का समाधि स्थल
वर्तमान में केदारनाथ में आदि गुरु की प्रतिमा तैयार हुई है उसका वजन 35 टन है।
इस प्रतिमा को बनाने में 9 महीने का समय लगा।
आदिगुरु शंकराचार्य की 12 फीट ऊंची मूर्ति कृष्णशिला पत्थर पर बनाई गई है।
मैसूर के प्रसिद्ध मूर्तिकार योगीराज शिल्पी ने 120 टन के पत्थर पर शंकराचार्य की प्रतिमा को तराशा है।
2013 की आपदा में केदारनाथ में आदिगुरु शंकराचार्य का समाधि स्थल और उनकी मूर्ति मंदाकिनी नदी के सैलाब में तबाह हो गई थी। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिशा निर्देश में केदारनाथ धाम के पुनर्निर्माण कार्यों के तहत आदिगुरु शंकराचार्य की समाधि विशेष डिजाइन से तैयार की गई है।
प्रतिमा की चमक के लिए उसे नारियल पानी से पॉलिश किया गया है। समाधि का निर्माण 36 मीटर गोलाकार में किया गया है जिसकी गहराई छह मीटर है। समाधि तक प्रवेश व निकासी के लिए अलग-अलग 3 मीटर चौड़े व 40 मीटर लंबे दो रास्तों का निर्माण है।
इस विशेष परियोजना के लिए योगीराज ने कच्चे माल के रूप में लगभग 120 टन पत्थर की खरीद की और छेनी प्रक्रिया को पूरा करने के बाद इसका वजन लगभग 35 टन है। मूर्तिकला आदि शंकराचार्य को बैठने की स्थिति में प्रदर्शित करती है।
आदिगुरु शंकराचार्य के समाधिस्थल में सर्दियों के दौरान बर्फ को पिघलाने के लिए हिटिंग सिस्टम स्थापित किया गया है। इसके लिए समाधि के निचले व मध्य हिस्से में गीजर रॉड लगाई गई हैं। बर्फ से बने पानी की निकासी मंदाकिनी नदी में होगी। साथ ही समाधि के चारों तरफ लाइटिंग की गई और स्पीकर लगाए गए हैं।
केदारनाथ में सरस्वती व मंदाकिनी नदी के बीच में स्थापित आदिगुरु शंकराचार्य की समाधिस्थल में दोनों नदियों का जल बारामास प्रवाहित होता रहेगा। यह जल समाधि के सबसे निचले हिस्से में निर्मित तालाब में मिलेगा। इस तालाब में श्रद्धालुओं के जाने के लिए अभी कोई व्यवस्था नहीं है। बताया जा रहा है कि श्रद्धालु के लिए समाधि स्थल तक पहुंचने की अनुमति दी जाएगी।
सनातन धर्म के पुनरोद्धारक आदिगुरु शंकराचार्य का अवतरण एवं उनका प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ था, जब धार्मिक दुराचरण का बोलबाला था । बौद्ध तथा हिन्दू धर्म के मठ, मन्दिर, विहार व्यभिचार का केन्द्र बन गये थे ।
नैतिकता तथा सदाचार धार्मिक केन्द्रों से दूर होने लगा था । मांसाहार, पशु बलि, मानव बलि, अन्धविश्वास जैसी कुरीतियां धर्म को भ्रूच्छृकर रही थीं । सामान्य मनुष्य धर्म के सच्चे रूप से अनभिज्ञ होकर ढोंगियों और पाखण्डियों के भ्रम में पड़ा हुआ था । ऐसे समय में एक से महात्मा, सना एवं धर्गगुरु की आवश्यकता थी, जो लोगों को धर्म का सही रूप बता सके ।
आज से साढ़े बारह सौ वर्ष पूर्व केरल के कालड़ी ग्राम में 788 ई॰ में भगवान् शंकर की कृपा से बालक शंकराचार्य का जन्म हुआ । उनकी माता आर्याम्बिका देवी और पिता शिवगुरु अत्यन्त धर्मनिष्ठ थे । तीन वर्ष की अवस्था होते-होते बालक शंकराचार्य के पिता का देहावसान हो गया ।
असाधारण मेधासम्पन्न इस बालक ने तमिल भाषी होते हुए भी संस्कृत, गणित संगीत उतदि के साथ-साथ गरत्रों का भी गहरा ज्ञान प्राप्त कर लिया था । इतनी छोटी अवस्था में इतना ज्ञान दैवीय चमत्कार से कम नहीं था । उनकी विद्वता से प्रभावित होकर देश के कोने-कोने से लोग आते थे तथा अपनी समस्याओं का उचित हल पाकर सन्तुष्ट होकर चले जाते थे ।
8 वर्ष की अवस्था में उनके मन में वैराग्य लेने की अदम्य भावना जाग पड़ी । मां यह सुनकर सन्न रह गयी । बालक शंकर ने मां को वह घटना सुनायी, जब किसी पर्व के अवसर पर वे नदी के जल में उतरे थे, तो उन्हें एक मगर ने पकड़ लिया था । मां ने यह प्रार्थना की कि भगवान उनके बेटे को बचा लें, तो वे बोले: ”मां ! यदि तू मुझे शिवजी को अर्पण कर देगी, तो मेरे प्राण बच सकते हैं ।”
संन्यासी होकर जाने से पहले उन्होंने मां को यह वचन दिया कि वे कहीं भी रहें, उनके अन्तिम समय में वे उनके पास ही रहेंगे । संन्यासी होकर वे भ्रमण करते हुए वन के एक पेड़ के नीचे थकान मिटाने लेटे थे, तो देखा कि एक सांप, मेंढक को अपने फन की छाया में रखकर गरमी से बचा रहा है । उन्होंने दिव्य ज्ञान से यह जान लिया कि यह अवश्य ही किसी महात्मा की भूमि है ।
उन्हें यह पवित्र स्थान श्रुंगी ऋषि कें पवित्र आश्रम में ज्ञात हुआ । उन्होंने इस पवित्र भूमि में कोरी मठ को में स्थापित करने को संकल्प लिया । अपनी भ्रमण यात्रा में नर्मदा नदी के किनारे उनकी भेंट आचार्य गोविन्द भगवत्पाद से हुई । गुरु ने उनके दित्य ज्ञान से प्रभावित होकर उन्हें शंकराचार्य का नाम दिया ।
शंकराचार्य के जीवन में घटी अद्भुद घटनाएं
ऐसी ही एक घटना उनके गुरु से संबन्धित हैं: गुरु गुफा में साधना में रत थे । अचानक नदी के बहाव से गुफा तक पानी आ पहुंचा । शंकराचर्या ने गुफा के द्वार पर एक घड़े को रख दिया । जितना भी जल आता, घड़े में भरता जाता । गुरु को इस घटना का पता लगा, तो उन्होंने उसे काशी जाकर विश्वनाथ करते हुए ब्रम्हासूत्रशाष्य लिखने को कहा ।
काशी पहुंचे, तो गंगा तट पर एक चाण्डाल का सामना हुआ । उसके स्पर्श से शंकराचार्य कुपित हो उठे । चाण्डाल ने हंसते हुए शंकर से पूछा: आत्मा और परमात्मा तो एक है । जिस देह से तुम्हारा स्पर्श हुआ, अपवित्र कौन है ? तुम या तुम्हारे देह का अभिमान ? परमात्मा तो सभी की आत्मा में है । तुम्हारे संन्यासी होने का क्या अर्थ है, जब तुम ऐसे विचार रखते हो ?”
कहा जाता है कि चांडाल के रूप में साक्षात शंकर भगवान ने उन्हें दर्शन देकर ब्रह्मा और आत्मा का सच्चा ज्ञान दिया । इस ज्ञान को प्राप्त करके वे दुर्ग रास्तों से होते हुए बद्रीकाश्रम पहुंचे । यहां चार वर्ष रहकर तहारत पर भाष्य लिखा । वहीं से केदारनाथ पहुंचे ।
यहां मण्डन मिश्र नाम के कर्मकांडी ब्राह्मण उनका शास्त्रार्थ हुआ । शंकराचार्य ने मण्डन मिश्र की पत्नी भारती को भी पराजित किया । दक्षिण पहुंचकर उन्होंने कर्मकाण्ड की प्रचार किया । कापालिकों के प्रभाव को समाप्त किया । माता की बीमारी का अन्तर्ज्ञान होते ही दिये हुए वचनानुसार वे मां के अन्तिम दर्शनों के लिए कालडी ग्राम पहुंचे ।
एक संन्यासी होकर भी उन्होंने अपने हाथों से माता का दाह संस्कार किया, जो एक संन्यासी के लिए वर्जित था । शंकराचार्य ने कश्मीर से लैकर कन्याकुमारी, अटक से लेकर कटक तक भारतवर्ष की यात्रा करते हुए विद्वानों से शास्त्रार्थ किया । वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए विशाल सेना बनायी । लोगों को वैदिक धर्म के सच्चे और पवित्र रूप से अवगत कराया ।
16 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अनेक धार्मिक ग्रन्थ लिखे । ब्रह्मसूत्रभाष्य, गीताभाष्य, सर्ववेदान्त सिद्धान्त, विवेक चूड़ामाणी, प्रबोध सुधाकर तथा बारह उपनिषदों पर भाष्य लिखे ।
टीम स्टेट टुडे
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