लेखक - के. विक्रम राव @kvikramrao1
राजनीति कभी भी रिक्तता गवारा नहीं करती। प्रकृति हमेशा समरसत्ता ही सर्जाती है। अत: नेपाल के इतिहास की उग्रतम वैधानिक विपदा कल (13 जुलाई 2021) तिरोहित हो गयी। संदेहास्पद राष्ट्रपति तथा दृढ़ प्रधानमंत्री की तकरार में उच्चतम न्यायालय ने सही समय पर हस्तक्षेप किया। इस हिमालयी गणराज्य में जनतंत्र कायम रहा।
यदि पश्चिमी हिमालय (हिन्दकुश) के उस पार काबुल में भारतमित्र, अमेरिका—शिक्षित अर्थशास्त्री प्रोफेसर अशरफ गनी अहमदजायी को तालिबान के जाहिल और कुंदजेहन सरगना लोग सशस्त्र बर्खास्त कर रहे है। तो उधर उत्तरी हिमालयी गणराज्य, हिन्दू—बहुल नेपाल में भारतमित्र पुराने समाजवादी, नेपाली कांग्रेस के पुरोधा शेर बहादुर देउवा पांचवीं बार प्रधानमंत्री बन गये। अर्थात हिमालय पर भारत बराबर ही रहा। नेपाल और अफगानिस्तान दोनों पड़ोसी राष्ट्रों पर हावी होकर कम्युनिस्ट चीन भारत पर आपदा लादने में प्रयत्नशील है।
नेपाल में भारत के पक्षधरों की सफलता से बड़ी राहत और सकून हुआ। चीन की समर्थक तीनों नेपाली कम्युनिस्ट पार्टियां अबतक अवसरवादी गठबंधन कर सत्ता पर काबिज रहती थीं। मगर संसदीय लोकतंत्र जीत ही गया। मौकापरस्त, पदलोलुप, राजकोष के लुटेरों को काठमाण्डो में उच्चतम न्यायालय ने सिरे से खारिज कर दिया। सांसदों की खरीद—फरोख्त कर घोड़ों का बाजार खोलने वालों को शिकस्त मिली। प्रधानमंत्री देउवा लंदन में शिक्षित अर्थशास्त्री हैं। युवावस्था में भारत के सोशलिस्ट अग्रणी लोकनायक जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया आदि के संपर्क में रहे। उन्हीं के सामूहिक संघर्ष के नतीजे में कम्युनिस्ट चीन के शातिर राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी मात खा गये। देउवा को चुनौती एक काइयां कम्युनिस्ट से मिली थी। खड्ग प्रसाद ओली विप्रवर्ण के हैं, पर हैं अनीश्वरवादी। उनका खुदा कार्ल मार्क्स है। नैतिकता से वास्ता ही नहीं रहा कभी। इसीलिये विगत चार महीनों से अल्पमत में आकर भी ओली अपनी कारीगरी से प्रधानमंत्री बनते ही रहे। राष्ट्रपति श्रीमती विद्यादेवी भण्डारी की अनन्त (अनैतिक) अनुकम्पा बनी रही। हर संवैधानिक प्रावधान को मरोड़ कर भण्डारी महोदया अपनी जिद को पूरी करतीं रहीं। वे भी कभी ओली की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्या थीं। उन्हीं के हाथ की सफाई थी कि चीनपरस्त ओली के पास 271 सदस्यों वाले संसद में 153 सांसदों का दावा करने के कारण उन्हें राष्ट्रपति महोदया ने दो—दो बार प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। गणना में पता चला कि ओली के पास 153 सदस्य कभी भी थे ही नहीं।
भला हो नेपाल के आदरणीय उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति चोलेन्द्र शमशेर राणा जी का जिन्होंने विवेकशील जांच के बाद पाया कि नेपाली कांग्रेस के नेता देउवा के पास बहुमत से कहीं अधिक सदस्यों का समर्थन है। उन्हीं के पक्ष में संवैधानिक निर्णय आया। चीन की पुरजोर मदद के बावजूद उनके कठपुतली ओली अब मात्र नेता विपक्ष ही रहेंगे। पड़ोसी बंगाल की भांति साजिशभरा 'खेला' होने से प्रधान न्यायाधीश ने रोक दिया। किन्तु तबतक ओली ने संसद को अपनी चहेती राष्ट्रपति द्वारा भंग करा ही दिया। न्यायालय ने ओली को दोहरी मार दी। पहला तो संसद को भंग करने वाले आदेश को निरस्त कर दिया। दूसरा देउवा को प्रधानमंत्री की शपथ दिलवा दी।
ओली मिमियाते रह गये कि प्रधान न्यायधीश को प्रधानमंत्री नियुक्त करने का हक नहीं है। खैर अब इस हिमालयी गणराज्य में लोकतंत्र बरकरार रहेगा। ओली अपने आका शी जिनपिंग की भांति आजीवन पदासीन रहना चाहते थे।
शेरबहादुर देउवा ने इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (IFWJ) के सवा दो सौ सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल का काठमाण्डो में अभिनन्दन किया था। IFWJ के मेरे साथी 29 जून 2017 को एक पखवाडे के लिये पोखरा, एवरेस्ट, लुम्बिनी और काठमाण्डो की यात्रा पर गये थे। नेपाल पत्रकार संघ तथा हिमालयी मीडियाकर्मियों ने स्वागत समारोह रखे थे। यह IFWJ की विगत आठ सालों में दूसरी यात्रा थी।
तब प्रधानमंत्री देउवा ने अपने कार्यालय में लगभग घंटेभर भारतीय पत्रकार प्रतिनिधियों से वार्ता की थी। उसी वक्त (जून 2017) दार्जिलिंग में गोरखालैण्ड राज्य के लिये आंदोलन चल रहा था। नेपालमूल के इन लोगों में काठमाण्डो की रूचि और सरोकार होना लाजिमी था। किन्तु प्रधानमंत्री देउवा ने हमारे प्रश्न पर स्पष्ट जवाब दिया कि गोरखालैण्ड भारत का आंतरिक मामला है। अत: श्री नरेन्द्र मोदी को ही हल करना होगा। नेपाल से कोई मतलब नहीं है। हमारे प्रतिनिधि मंण्डल में थे संपादक शंभुनाथ शुक्ल, अशोक मधुप (उत्तर प्रदेश), जी. सोमय्या तथा पी.आनन्दम (तेलंगाना), एचबी मदन गौड़ तथा एन.राजू (कर्नाटक), पी. परमेश्वरन (तमिलनाडु), हरिओम पाण्डेय (मध्य प्रदेश), उपुल (कोलम्बो), राम यादव (नयी दिल्ली), युवराज घिमरे (इंडियन एक्सप्रेस के काठमाण्डो संवाददाता) तथा विश्वदेव राव (लखनऊ)।
आखिर यह पंडित खड्ग प्रसाद शर्मा ओली हैं कौन जो प्रधानमंत्री तिबारा होते—होते बच गये थे? ओली और प्रचंड दहल चीन के झंडा-बरदार हैं, और अभी तक इस हिमालयी राष्ट्र में भारतीय हितों का अपार नुकसान करते रहे। आखिर इस शर्मा ‘ओली’ की हिन्दू—विरोधी साजिश क्या है ? कौन हैं यह ? नक्सली चारु मजूमदार का प्रेरित शिष्य, यह ओली नेपाल-बंगाल सीमा पर, कभी अपनी जन अदालत बनाकर भूस्वामियों का सर कलम करता था। वर्गशत्रु की हत्या को नक्सली धर्म कहता था। लेकिन ऐसा किसान-पुत्र शीघ्र ही अकूत धन और जमीन हथियाने लगा। धन बल से सत्ता हथियाना उसका लक्ष्य हो गया। क्रमशः इनके वैचारिक भटकाव से ग्रसित नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी भी कई टुकड़ों में विभाजित हो गई। जनक—जामाता राम को ओली नेपाल का बता चुके हैं। अयोध्या को भी नेपाल का शहर कह चुकें हैं। पण्डित ओली की एक और ख्याति है। उनके नाम से रंग—बिरंगे एनजीओ पलते हैं। सारा धन (देसी व विदेसी) इन्हीं के मार्फ़त जमाखर्च होता है। पिछले भूकम्प के समय बटोरी गयी 40 लाख डालर की राशि अभी तक राहत में खर्च नहीं हुई। तो किसके जेब में खो गयी? ओली जानें। विचारधारा से कम्युनिस्ट ओली लेनिनवादी नहीं हैं, वे स्तालिनवादी हैं। कट्टर हैं। शायद ही दण्डसंहिता में निगदित कोई अपराध उनसे नहीं हुआ हो। अब नेपाल के उच्चतम न्यायतंत्र ने सब संवार दिया है। ओली पर कानूनी ओला गिरा। काठमाण्डो बच गया।
K Vikram Rao
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