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संदेह और आशंकाओं से घिरीं देश की दो बड़ी पार्टियां, सियासी भूचाल की आहट पर BJP कांग्रेस के नेता मिले



भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय फलक की दो पार्टियां संदेह और आशंकाओं के भंवर में उलझ गई हैं। सियासी घटनाक्रम यूं तो एक के बाद एक हो रहे हैं लेकिन पार्टियों के शीर्ष नेता हैरान हैं कि ऐसा हो कैसे रहा है।


पहले बात पंजाब की। चन्नी को पंजाब की कमान सौंपने के बाद कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अभी बैठा ही था कि सिद्धू के इस्तीफे ने पैरों के नीचे से जमीन निकाल ली।


बात सिर्फ यहीं नहीं रुकी। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह दिल्ली आए और अमित शाह से मुलाकात भी कर ली।


गौरतलब बात ये है कि अमरिंदर सिंह बीजेपी के शीर्ष रणनीतिकार अमित शाह से मिले हैं ना कि देश के गृहमंत्री से।


मुलाकात तो हो गई लेकिन बीजेपी के चाणक्य भी इस मुलाकात के बात सोच रहे हैं कि सियासी लिहाज से महत्वपूर्ण ये मौका लपका जाए या नहीं।


उधर कांग्रेस आलाकमान सिद्धू के इस्तीफे से ना सिर्फ अवाक हैं बल्कि कैप्टन की मुलाकात के बाद कांग्रेस के 23 असंतुष्ट नेताओं के मुखर स्वर उसे कहीं ज्यादा परेशान कर रहे हैं।


सिर्फ इतना ही नहीं नेतृत्व परिवर्तन की हवा उड़ने के बाद छत्तीसगढ़ से सीएम बघेल के 12 कट्टर समर्थक विधायकों ने दिल्ली में डेरा डाल दिया है। उधर राजस्थान में भी कांग्रेस को सचिन पायलट के समर्थकों का दबाव बढ़ता नजर आ रहा है।


जाहिर है कांग्रेस के असंतुष्टों को बीजेपी का घर रास आ सकता है लेकिन बीजेपी दुविधा में पड़ गई है कि ये असंतोष उभार कर नेता भेजे जा रहे हैं या वास्तव में ये नेता कांग्रेस छोड़ना चाहते हैं।


इसमें दोराय नहीं कि सियासत में कुछ भी स्थाई नहीं होता और मौके पर चौका लगाने वाला ही बाजी जीतता है।

बीजेपी के सामने मौका


अगर पंजाब में कांग्रेस का घमासान बढ़ता है और कैप्टन बीजेपी की तरफ आ जाते हैं तो पगधारी सरदार का संकट खत्म हो जाएगा।


कैप्टन के सियासी कद का फायदा बीजेपी को निश्चित मिलेगा।


किसान आंदोलन का समाधान भी बीजेपी कैप्टन के जरिए सुनिश्चित करवा लेगी। एमएसपी फिक्स कर बीच का रास्ता भी निकाला जा सकता है। ऐसे में कानून वापस लेने का मामला भी आंदोलनकारियों के हाथ से जाता रहेगा।



कांग्रेस के सामने मौका


कैप्टन जैसे कद्दावर नेताओं को किनारे लगाकर कांग्रेस का अगला नेतृत्व उस दबाव से बाहर आ जाएगा जहां उन्हें बच्चा ही समझा जाता है।


कैप्टन की आड़ में कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं ने आलाकमान की फिर से जो घेराबांदी की है उसकी हवा निकल जाएगी।


राहुल और प्रियंका पूरे देश में यंगटर्क्स के साथ भविष्य की सियासत में दांव खेलने के लिए स्वतंत्र होंगे।


बीजेपी की समस्या


बंगाल चुनाव से पहले बीजेपी में शामिल हुए ज्यादातर नेता तृणमूल के खबरी या मुखबिर निकले। जिसमें बाबुल सुप्रियो जैसे पूर्व केंद्रीय मंत्री तक शुमार हैं। मुखबिरी करने वाले नेताओं की सूची बहुत लंबी है और पश्चिम बंगाल में बहुत सारे तृणमूल के खबरी अभी भी बीजेपी की जड़ें खोदने में जुटे हैं।


कांग्रेस के तमाम बुजुर्गों के लिए बीजेपी अगर तात्कालिक फायदे के लिए दरवाजे खोल भी दे तो वो खड़े खड़े उम्रदराज हो जाएगी। ऐसे में पार्टी के भीतर अपनी बारी का इंतजार कर रहा युवा ना सिर्फ फ्रस्टेट होगा बल्कि नई राह भी तलाशेगा।


कांग्रेस की समस्या


वर्तमान के घटनाक्रम मौजूदा कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व के लिए जितना फायदे का सौदा हो सकते हैं उससे कहीं ज्यादा फजीहत करा देते हैं।


कद्दावर पुराने नेताओं का कद दस जनपथ के सामने भले छोटा लगे परंतु असंतुष्ट नेता पार्टी का नुकसान करने की ताकत अभी भी रखते हें।


ये सब हो रहा है या कराया जा रहा है


इस वक्त देश में 18 साल से लेकर 35 साल की उम्र के बीच की आबादी ने अपने होशोहवास में अन्ना का आंदोलन देखा। अन्ना के आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी को देखा। आम आदमी पार्टी बनाने वाले अरविंद केजरीवाल को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनते देखा। ये सब इतनी तेज हुआ कि फटाफट युग में राजनीति इंस्टेंट काफी की तरह पेश हुई।


इससे पहले पिछली पीढ़ी ने 80-90 के दशक में राम मंदिर आंदोलन और आरक्षण की आग देखी थी।


योजनाबद्ध तरीके से चले उस दौर के आंदोलनों की अगुवा बीजेपी थी जिसे सत्ता तक पहुंचने में लंबा संघर्ष करना पड़ा। सही मायनों में बीजेपी 2014 से ही केंद्रीय सत्ता में काबिज हुई। अटल बिहारी बाजपेई के दौर में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार जरुर थी लेकिन वो कैसे चल रही थी ये सबको पता है।



सबसे बड़ा सवाल


अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि वर्तमान परिस्थितियां राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते स्वस्फूर्त हैं यानी खुद हो रही हैं या कोई है जो परदे के पीछे से बीजेपी और कांग्रेस दोनों को निपटा रहा है। सिर्फ निपटा ही नहीं रहा है बल्कि भविष्य के लिए अपनी जमीन भी तैयार कर रहा है।


अगर आपको लगता है कि ये सिर्फ हो रहा है और सियासत में ऐसा होता रहता है तो आप गलत भी हो सकते हैं। राजनीति में भी नए प्रयोगों से ही शीर्ष तक पहुंचा जा सकता है। जैसे बीजेपी ने लंबे संघर्ष का रास्ता चुना तो केजरीवाल ने तुरत-फुरत में सत्ता हासिल की।


अब अगर राजनीति में शीर्ष पर पहुंचना है तो ना सिर्फ कुछ नया करने की आवश्यकता होगी बल्कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को बेहद प्राकृतिक तरीके से निपटाना भी होगा। जैसे आज की नौजवान बीजेपी को बूढ़ा बनाकर और नई करवट ले रहे कांग्रेस नेतृत्व को खोखला बना कर।


कौन कर सकता है ऐसा


बीजेपी और कांग्रेस दोनों को एक साथ वही निपटा सकता है जो इन दोनों पार्टियों की जड़ों को पहचानता हो या जिसे जड़ों में किसी वक्त खाद-पानी का जिम्मा दिया गया हो।


वर्तमान में एक शख्स ऐसा है जिसने एक दौर में आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए प्रचार का जिम्मा संभाला। बाद में नहीं बनी कह कर चल दिया और फिर देश की अलग अलग पार्टियों के साथ चुनावी रणनीतिकार के रुप में जुड़ा। बिहार में गया तो जिसने बुलाया उसे जिताया और फिर वहां से कट लिया। पंजाब गया तो कैप्टन के लिए रणनीति बनाई फिर कैप्टन उस शख्स की रणनीतिक रिपोर्ट का शिकार हो गए। सिद्धू की सियासत तो दरअसल कभी थी ही नहीं वो पहले भी मोहरा थे आज भी मोहरा ही हैं और मोहरे की तरह ही पिट रहे हैं।


दिल्ली में केजरीवाल फिलहाल आराम से हैं और उधर महाराष्ट्र से शिवसेना और एनसीपी दोनों उस शख्स के संपर्क में हैं। बंगाल में इस शख्स की सेवा से ममता भी खुश हैं। दक्षिण में राजशेखर रेड्डी भी अपना राज्य फिलहाल ठीक ही चला रहे हैं लेकिन ये उस शख्स की सलाहियत है कि वो हर क्षेत्र की सियासत बहुत तेजी से अपनी ग्रिप में ले चुका है और किस पार्टी का कीलकांटा कहां कमजोर और कहां मजबूत है ये उसे बखूबी जानकारी है।



क्या है आने वाले कल का सच


वैसे तो देश "पीके" नहीं बैठा है लेकिन कई बार स्थितियां-परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि कदम लड़खड़ा जाते हैं लोग सोचते हैं कि सामने वाला "पीके" आया है। राजनीति में परसेप्शन यानी धारणा बहुत बड़ा काम करती है।


ऐसे में अगर कोई "पीके" किसी समय अपना परसेप्शन सेट करेगा तो क्षेत्रीय धुरंधरों का अता पता नहीं रह जाएगा बीजेपी और कांग्रेस भी रसातल में होंगी।


टीम स्टेट टुडे




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