गांव में न कोई काम पाया जब रामदीन,
ढूंढने को रोजगार शहर चला गया.
चला गया शहर तो बन मजदूर फिर,
कुछ ही पगार में ही तन को गला गया.
गला गया तन सारा पिचका है पेट पीठ,
मजदूरी मांगने पे खूब है छला गया.
छला गया बड़ी बड़ी कोठियाों के मध्य बंधु,
रोटियों की चाह में ही जीवन जला गया. (1)
महामारी चीन की कोरोना वाली आयी तब,
रामू वाली चाय की दुकान बंद हो गयी.
छोटी मोटी रोज की जो होती थी कमाई सब,
गाड़ी परिवार की चलाने में ही खो गयी.
पकना भी रोटी जब हो गया था दुशवार,
आँख तब खून वाले आंसू से ही धो गयी.
हाय रे गरीबी वाले कैसे दिन आये आज,
भूख से तड़प कर बेटियाँ भी सो गयी. (2)
वक्त ने दिया है जाने कितनी भी चोट पर,
मानना न हार कभी सबको दिखा दिया.
हर एक पल मीत लडके दुरूह जंग,
नाम रणबाकुरों में अपना लिखा दिया.
बची नही दिलों में थी जिनके भी भावनाएं,
स्वाद वेदना का बंधु उनको चिखा दिया.
गाँव की शहर से जो दूरी आसमान की थी,
पांव से ही दूरी यह नाप के दिखा दिया. (3)
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