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हर मन दुखी हर आंख नम - नहीं रहे समाजवाद के झंडाबरदार नेताजी मुलायम सिंह यादव



सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव का गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में सोमवार सुबह निधन हो गया। दोपहर बाद उनका पार्थिव शरीर सैफई पहुंचा. गम के माहौल से सराबोर, उमड़े जनसैलाब के बीच के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सैफई पहुंचे और मुलायम सिंह यादव को भावभीनीं श्रद्धांजलि अर्पित की. सीएम योगी ने मुलायम सिंह यादव के पार्थिव शरीर पर पुष्प अर्पित किए और अंतिम नमन किया.सीएम योगी ने इस दौरान भावुक अखिलेश यादव से भी मुलाकात की. सीएम योगी के बाद यूपी भाजपा अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी ने नेता जी को श्रद्धांजलि अर्पित की. इस दौरान उत्तर प्रदेश सरकार में जलशक्ति मंत्री स्वतंत्र देव सिंह ने भी मुलायम सिंह यादव को श्रद्धांजलि अर्पित की और दोनों नेताओं ने अखिलेश यादव से मुलाकात कर उनको इस अपर दुख को सहने की हिम्मत दी.बता दें कि मुलायम सिंह यादव के निधन पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ट्वीट कर लिखा कि “अखिलेश यादव से फोन पर बातकर अपनी संवेदनाएं व्यक्त की है। सीएम ने नेताजी के निधन पर यूपी में तीन दिन का राजकीय शोक घोषित किया है। इसके साथ ही नेता जी का अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ होगा।”



एक मुलायम किस्से हजार

जिसका जलवा कायम है उसका नाम मुलायम है। राजनीति की चौसर पर चारों तरफ यह नारा बीते चार दशक से छाया हुआ है। सियासी अखाड़ों में एक पहलवान के दांव किस तरह से राजनीति बदल देते हैं इसका पर्याय मुलायम सिंह यादव बन चुके हैं। सिर्फ इतना ही नहीं एक अर्से से बीमार चल रहे मुलायम कई बार काल को धोबी पछाड़ का दांव दिखा चुके हैं। इस समय मुलायम बहुत बीमार है लेकिन ये उनकी जीवटता और मौत को भी दांव देने का अंदाज है जिसने अलग अलग राह पर चलते उनके परिवार के तमाम धुरंधरों को एक अस्पताल की छत के नीचे एक पैर पर लाकर खड़ा कर दिया है।


उत्तर प्रदेश की राजनीति ने आजादी के बाद जिस मोड़ से अपना रास्ता बदला मुलायम सिंह यादव वहीं से खड़े दिखाई दिये। पिछड़े वर्गों की आकांक्षाओं के प्रतीक बने मुलायम सिंह को राजनीति का एक ऐसा समीकरण रचने का श्रेय जाता है, जिसके आगे पुराने सारे समीकरण या तो ध्वस्त हो गए या फीके पड़ गए। फिर चाहे वो जनता पार्टी को तोड़ना हो या सरकार बनाने के लिए बहुजन समाज पार्टी को साथ जोड़ना । अखाड़े की मिट्टी में बड़े हुए मुलायम सिंह ने अपने पसंदीदा ‘चरखा’ दांव का राजनीति में भी खूब इस्तेमाल किया।



मुलायम सिंह यादव का जन्म 22 नवम्बर 1939 को इटावा जिले के सैफई गाँव में मूर्ती देवी व सुघर सिंह के किसान परिवार में हुआ था। मुलायम सिंह अपने पाँच भाई-बहनों में रतनसिंह से छोटे व अभयराम सिंह, शिवपाल सिंह यादव, रामगोपाल सिंह यादव और कमला देवी से बड़े हैं।

इटावा के सैफई गांव में जन्मे मुलायम सिंह यादव का शुरुआती जीवन इसी जिले के आसपास गुजरा। यहीं उनकी शुरुआती पढ़ाई हुई और इटावा के केके कॉलेज से बीए और बीटी की डिग्री ली। यहीं पर मुलायम लोहिया की समाजवादी विचारधारा के संपर्क में आए और फिर ‘छात्र संघ’ के अध्यक्ष बने। मुलायम जब सिर्फ 14 साल के थे तो लोहिया ने सिंचाई शुल्क में बढ़ोतरी के खिलाफ आंदोलन चलाया था और मुलायम उस आंदोलन के लिए पहली बार जेल गए। हालांकि उनकी राजनीति का आगाज इतने भर से नहीं हुआ।

कुश्ती के अखाड़े में नाटे कद के मुलायम सिंह की खासियत यह थी कि वे अपने से बड़े पहलवानों को आसानी से चित कर देते थे। सैफई के पास ही करहल में एक दिन कुश्ती का उनका मुकाबला इलाके के बड़े पहलवान सरयूदीन त्रिपाठी से हुआ। सरयूदीन कद में उनसे काफी लंबे थे, लेकिन मुलायम ने उन्हें भी चित कर दिया। प्रतियोगिता के दौरान वहां जसवंत नगर के विधायक नत्थू सिंह भी मौजूद थे। कुश्ती के बाद नत्थू सिंह मुलायम से मिले और उन्हें अपने साथ जोड़ लिया। अब वे ‘संयुक्त समाजवादी पार्टी’ के कार्यक्रमों में सक्रिय हो चुके थे। कहा जाता है कि पहलवानी के दौर में अखाड़े के अंदर मुलायम सिंह का प्रिय दांव होता था-‘चरखा’। तब किसने सोचा था कि धोबी पछाड़ का यही दांव वे राजनीति में अपनाएंगे। बाद में उन्होंने आगरा से एमए की डिग्री ली और कुछ समय के लिए अध्यापक हो गए।


अर्जुन सिंह भदौरिया ने सिखाया समाजवाद का ककहरा

60 के उस दशक में राम मनोहर लोहिया समाजवादी आंदोलन के सबसे बड़े नेता थे। उस दौर में देशभर की तरह उत्‍तर प्रदेश के इटावा में भी समाजवादियों की रैलियां होती थीं और इन रैलियों में नेताजी जरूर शामिल होते थे। समाजवादी विचारधारा उन्‍हें रमने लगती थी। अब वे अखाड़े के साथ-साथ रैलियों में पाये जाते थे। समय बीतता गया और नेताजी समाजवाद के रंग में रंगते गये।


इटावा के मशहूर समाजवादी नेता अर्जुन सिंह भदौरिया ‘कमांडर’ ने उन्हें समाजवाद के पूरे ककहरे से परिचित कराया। 1967 का विधानसभा चुनाव हुआ तो जसवंत नगर से नत्थू सिंह को टिकट दिया गया, लेकिन अपनी उम्र की दुहाई देकर नत्थू सिंह ने अपनी जगह मुलायम सिंह को टिकट देने को कहा। मुलायम को टिकट तो मिल गया लेकिन प्रचार करने के लिए उनके पास साइकिल के अलावा कुछ भी नहीं था।

उनके दोस्‍त दर्शन सिंह ने उनका साथ दिया। दर्शन सिंह साइकिल चलाते और मुलायम कैरियर पर पीछे बैठकर गांव-गांव जाते।


पैसे नहीं थे। ऐसे में दोनों लोगों ने मिलकर एक वोट, एक नोट का नारा दिया। वे चंदे में एक रुपया मांगते और उसे ब्‍याज सहित लौटने का वादा करते। इस बीच चुनाव प्रचार के लिए एक पुरानी अंबेस्‍डर कार खरीदी। गाड़ी तो आ गयी, लेकिन उसके लिए ईंधन यानी तेल की व्‍यवस्‍था कैसे हो।



तब मुलायम सिंह के घर बैठक हुई। बात उठी क‍ि तेल भराने के लिए पैसा कहां से आयेगा। अचानक गांव के सोनेलाल काछी उठे और उन्‍होंने कहा क‍ि हमारे गांव से पहली बार कोई विधायकी जैसा चुनाव लड़ रहा है। हमें उनके लिए पैसे की कमी नहीं होने देनी है।


वह दौर अभावों का था। लेकिन लोगों के पास खेती-किसानी और मवेशी थे। गांव के लोगों ने फैसला लिया क‍ि हम हफ्ते में एक दिन एक वक्‍त खाना खाएंगे। उससे जो अनाज बचेगा, उसे बेचकर अंबेस्‍डर में तेल भराएंगे। इस तरह कार के लिए पेट्रोल का इंतजाम हुआ।



कई बार चुनाव प्रचार के समय उनकी गाड़ी कीचड़ में फंस जाया करती थी, तब लोग मिलकर उसे निकालते थे। प्रचार जोर-शोर चल रहा था क‍ि लेकिन मुलायम के पास दूसरे नेताओं की अपेक्षा संसाधनों की कमी थी।


मुलायम की लड़ाई कांग्रेस के दिग्‍गज नेता हेमवंती नंदन बहुगुणा के शिष्‍य एडवोकेट लाखन सिंह से था, लेकिन जब नतीजे आये तो सब चौंक गये। सियासत के अखाड़े की पहली लड़ाई मुलायम सिंह जीत गये और सिर्फ 28 साल की उम्र में प्रदेश के सबसे के उम्र के विधायक बने, और यहां से मुलायम सिंह नेता जी हुए।


अपना पहला ही विधानसभा चुनाव मुलायम सिंह जीत गए और उसके बाद आठ बार उस क्षेत्र के विधायक बने। इस पहली जीत का जब उनके गांव सैफई में जश्न मनाया जा रहा था तो वहां गोली चल गई।



मुलायम सिंह नाटे कद के थे इसलिए वे बच गए और गोली उनके पीछे खड़े एक लंबे आदमी को लगी। एक बार फिर ऐसा मौका आया, जब उन पर गोलीबारी की गई, लेकिन वे यहां भी बाल-बाल बच गए। इसी साल राम मनोहर लोहिया का निधन हुआ और इसके बाद समाजवादी आंदोलन कई तरह से बिखरने लग गया। लेकिन मुलायम सिंह पूरे क्षेत्र पर अपनी पकड़ मजबूत बनाते चले गए। उसी समय चौधरी चरण सिंह किसानों के बीच एक मजबूत ताकत के रूप में उभर रहे थे। मुलायम सिंह ‘संयुक्त समाजवादी पार्टी’ का दामन छोड़कर ‘भारतीय क्रांति दल’ में शामिल हुए और अगला चुनाव इसी के टिकट से जीते।

हालांकि मुलायम सिंह के पीछे-पीछे उनकी भारतीय क्रांति दल भी जल्द ही चौधरी चरण सिंह की शरण में आ गई और दोनों पार्टियों के विलय से जो नया दल बना उसका नाम था- भारतीय लोकदल।

आपातकाल में मुलायम जब जेल गए

आपातकाल लगा तो बाकी विपक्षी नेताओं की तरह ही मुलायम सिंह भी जेल गए। आपातकाल के बाद ‘जनता पार्टी’ बनी तो मुलायम सिंह यूपी में उसके सबसे सक्रिय सदस्यों में से थे। आपातकाल के बाद हुए चुनावों ने भारतीय राजनीति को पूरी तरह से बदल दिया था। इस चुनाव में लोगों ने कांग्रेस और आपातकाल के खिलाफ गुस्सा तो व्यक्त किया ही था, साथ ही लोगों को अपनी वोट की ताकत का एहसास भी हुआ। और इसी के बाद चुनावी समीकरणों में ऊंची जातियों का वर्चस्व भी टूटने लगा। चुनाव के बाद यूपी में जब राम नरेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया गया तो मुलायम सिंह ने भी पहली बार मंत्री पद की शपथ ली। उन्हें सहकारिता और पशुपालन विभाग मिले। पशुपालन और उनकी जाति को लेकर उनका मजाक भी बनाया गया, लेकिन मुलामय सिंह को पता था कि यह पहली सीढ़ी उन्हें बहुत ऊपर ले जाएगी।


काम आया सहकारिता विभाग का अनुभव


सहकारिता विभाग का अनुभव जीवनभर उनके काम आया। मंत्री बनते ही उन्होंने सहकारिता बैंक की ब्याज दरों को 14 से घटाकर सबसे पहले 13 फीसदी किया और फिर 12 फीसदी कर दिया। उन्होंने सहकारिता की ताकत को पहचाना और उसे अपनी राजनीति से जोड़ा। ‘जनता पार्टी’ का प्रयोग बहुत ज्यादा नहीं चला। उसके बाद कांग्रेस की सरकारें आ गईं तो मुलायम सिंह की तरह ही किसी भी गैर कांग्रेसी के लिए मंत्री बनने का मौका नहीं था। फिर भी चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाली पार्टी के भीतर वे लगातार मजबूत होते गए।


नेता से खांटी नेता का सफर


चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद उनके बेटे अजित सिंह पार्टी पर काबिज होना चाहते थे, मुलायम सिंह ने इसका विरोध किया और पार्टी दो फाड़ हो गई। मुलायम सिंह जिस धड़े में थे उसका नेतृत्व हालांकि हेमवती नंदन बहुगुणा के पास था, लेकिन वे बहुत सक्रिय होने की स्थिति में नहीं थे, इसलिए पार्टी की असल कमान मुलायम सिंह के हाथों में ही थी। एक तरह से यही वह समय था जब मुलायम सिंह ने खुद को बड़ी जिम्मेदारी संभालने के लिए तैयार कर लिया था। किसी खांटी राजनेता की तरह वे ऐसे लोगों में गिने जाने लगे थे, जो हर जिले में अपने कार्यकर्ताओं को न सिर्फ पहचानता है बल्कि उनके नाम तक याद रखता है। यही वह दौर था जब लोगों ने यह जाना कि मुलायम सिंह अपने पास आने वाले किसी भी शख्स की मदद के लिए तैयार रहते हैं, चाहे वह किसी भी दल या विचारधारा का क्यों न हो।

इसी दौर में मुलायम सिंह ने एक मेटाडोर गाड़ी में बैठकर पूरे प्रदेश का सघन दौरा भी किया था। वीपी सिंह ने जब कांग्रेस से विद्रोह कर जनमोर्चा बनाया तो ‘जनता दल’ में पहुंच चुके मुलायम सिंह उसके सक्रिय समर्थकों में थे। यह बात अलग है कि प्रदेश में मुलायम के मुकाबले वीपी सिंह की पहली पंसद अजित सिंह बने। इसलिए जब यूपी में मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी का मौका आया तो मुलायम के मुकाबले अजित सिंह को दिल्ली सरकार का समर्थन हासिल था।

लेकिन प्रदेश की राजनीति और विधायकों पर मुलायम सिंह की पकड़ ज्यादा मजबूत थी, इसलिए दिल्ली से भेजे गए पर्यवेक्षकों के सामने उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाने के अलावा और कोई चारा नहीं था। अजित सिंह को केंद्रीय उद्योग मंत्री के पद से ही संतोष करना पड़ा। बाद में जब मंडल आयोग की सिफारिशें स्वीकार हुईं तो उत्तर प्रदेश की राजनीति जिस तरह से बदली उसमें मुलायम सिंह प्रदेश ही नहीं देश की राजनीति की एक बड़ी ताकत बन गए थे। मुख्यमंत्री के तौर पर उनका यह कार्यकाल तकरीबन डेढ़ साल का ही रहा।



मंदिर आंदोलन और मुख्यमंत्री मुलायम

इस पूरे दौर में एक स्थाई चीज यह रही कि मुलायम ने हमेशा भाजपा के राम मंदिर आंदोलन की आलोचना की। यही वजह है कि जब अयोध्या पहुंचे कारसेवक उग्र हुए तो सरकार ने उन्हें नियंत्रित करने के लिए उन पर गोली चलवा दी, जिसमें पांच कार सेवकों की मौत हो गई। जिससे उन्हें काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा, लेकिन वे डिगे नहीं। जनता दल जब टूटा तो वे मंडल लागू करने वाले वीपी सिंह के साथ जाने के बजाय चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी यानी ‘सजपा’ में शामिल हुए, लेकिन उनका यह साथ लंबा नहीं चला। रामरथ पर सवार होकर जब भाजपा सत्ता में आई और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने तो प्रदेश विधानसभा में सजपा के सदस्यों की संख्या महज 24 थी। हालांकि इस संख्या के बल पर वे राज्यसभा में एक सदस्य भेज सकते थे। चंद्रशेखर चाहते थे कि प्रसिद्ध समाजवादी मोहन सिंह को राज्यसभा भेजा जाए, लेकिन मुलायम सिंह ने ऐन वक्त पर अपने भाई प्रोफेसर रामगोपाल यादव को मैदान में उतारा और जिताकर राज्यसभा पहुंचा दिया। इसी के साथ सजपा टूट गई और उन्होंने जो नई पार्टी बनाई उसका नाम था समाजवादी पार्टी, चुनाव चिह्न साइकिल। इस बीच बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जब कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लागू किया गया तो मुलायम सिंह ने अपनी सक्रियता बढ़ाई। साथ ही उन्होंने कांशीराम की ‘बहुजन समाज पार्टी’ से भी गठजोड़ कर लिया। चुनाव में इस गठजोड़ ने आसानी से सत्ता हासिल कर ली।


यह कार्यकाल पिछले से भी कम रहा और बसपा ने समर्थन वापस ले लिया। इस कार्यकाल में ही रामपुर तिराहा कांड चर्चा में आया, जहां पुलिस ने पृथक उत्तराखंड की मांग कर रहे आंदोलनकारियों पर गोली चलाई। इसके बाद से पर्वतीय क्षेत्रों में समाजवादी पार्टी लगभग खत्म हो गई। बाद में मायावती ने भाजपा के समर्थन से सरकार बना ली। इस बीच मुलायम लोकसभा पहंुच गए, जहां देवगौड़ा सरकार में उन्हें रक्षामंत्री बना दिया गया। यह सरकार जब गिरी तो मुलायम सिंह का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए भी चला, लेकिन लालू यादव और कुछ दूसरे क्षत्रपों के विरोध के बाद वे देश की सत्ता के शिखर पर पहुंचने से रह गए। उधर, यूपी में बसपा और भाजपा की सरकारों के साथ ही राष्ट्रपति शासन का भी एक लंबा दौर चला।



2012 के चुनाव के बाद बेटे को सौंप दी बागडोर


आखिरकार 2003 में मुलायम सिंह बसपा को तोड़ने और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से सरकार बनाने में कामयाब हो गए। वे उस समय लोकसभा सदस्य थे और जब उन्होंने गुन्नौर से विधानसभा चुनाव लड़ा तो वे रिकॉर्ड मतों से जीते। यह उनका सबसे लंबा कार्यकाल था, जो साढ़े तीन साल तक चला। इसके बाद 2012 के चुनाव में जब उनकी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला तो उन्होंने बागडोर अपने बेटे अखिलेश को सौंप दी।


अखिलेश ने जल्द ही सरकार ही नहीं पार्टी पर भी पूरी पकड़ बना ली। उनके कार्यकाल के आखिर में जब पार्टी और परिवार दोनों में विभाजन रेखाएं उभरीं तो अखिलेश अपने पिता को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाकर खुद अध्यक्ष बन गए। हालांकि बाद में मुलायम सिंह सबको साथ जोड़ने में कामयाब रहे।


टीम स्टेट टुडे

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