नए साल की शुरूआत लोगों के लिए सामान्यतया एक वर्ष की योजना तक सीमित होती है, लेकिन भारतीय राजनीति के लिए 2024 ऐसा साल होने वाला है जहां से यह तय होगा कि देश हर दूसरे तीसरे महीने चुनाव से गुजरेगा या फिर पांच साल में एक बार। समान नागरिक संहिता को लेकर लोगों की सोच स्थापित होगी और यह भी तय होगा कि जनता की पसंद ईज ऑफ लिविंग है या फिर रेवड़ी। सबसे बड़ी बात यह तय होगी कि जनता नेतृत्व को ज्यादा अहमियत देती है या राजनीतिक दल को। राजनीतिक दलों की सफलता के लिए नेतृत्व जरूरी है या नेतृत्व के लिए दल।
एक महीने पहले पांच राज्यों के चुनाव के साथ ही चर्चा 2024 के लोकसभा चुनाव पर केंद्रित हो गई है। यूं तो तीन दशक के इतिहास को पलटकर 2014 से लगातार दो बार केंद्र में एक पार्टी की बहुमत की सरकार बन चुकी है, लेकिन 2024 इसलिए खास है, क्योंकि विपक्ष अपने अंतरविरोधों के बावजूद लामबंद होकर भाजपा के सामने खड़ा होने की तैयारी कर रहा है। एक तरह से इसे 1977 के चुनाव का रंग देने की कोशिश हो रही है। यानी यह तय हो चुका है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने अपने लिए वह स्थान बना लिया है जहां कोई एक दल चुनौती देने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। एकजुट होकर अंतिम लड़ाई की आजमाइश हो रही है।
2024 में खींची जाएगी बदलाव की लकीर
एक तरफ विपक्ष भाजपा के विरासत की राजनीति को सांप्रदायिक करार दे रहा है और दूसरी तरफ भाजपा विरासत के वैभव से आर्थिक विकास का ऐसा ढांचा खड़ा करने की कोशिश हो रही है जिसमें मन भी तृप्त हो और जेब भी। ऐसे में 2024 ऐसा काल होगा जहां बदलाव की लकीर पत्थर पर खींची जाएगी। तीसरी बार फिर से बहुमत के साथ मोदी सरकार बनती है तो व न सिर्फ लोककल्याणकारी योजनाओं की जमीन तक पहुंच का सबूत और विकसित भारत के सपनों के लिए होगा, बल्कि अनुच्छेद 370 को रद किए जाने, तीन तलाक को अवैध करार दिए जाने की तरह ही समान नागरिक संहिता पर ठोस कदम, एक देश एक चुनाव जैसे बड़े सुधार के लिए भी अनुमोदन होगा।
गौरतलब है कि सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह व अन्य की एक कमेटी बनाई है, जो एक देश एक चुनाव पर विमर्श कर रही है, जबकि समान नागरिक संहिता पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से ही बार-बार याद दिलाया जा रहा है। सरकार की ओर से फिलहाल चुप्पी है। हालांकि, शादी व तलाक जैसे मुद्दों पर कुछ सुधार पहले ही हो चुके हैं।
कर्नाटक के आगे भाजपा का नहीं हो पाया विस्तार
भाजपा पिछले कुछ वर्षों में पूरे उत्तर और उत्तर पूर्व में अपना पैर जमा चुकी है, लेकिन दक्षिण में कर्नाटक के आगे विस्तार नहीं हो पाया है। द्रुमक के एक सांसद की ओर से इसे उत्तर और दक्षिण के विभाजन की तरह भी पेश किया गया था, बल्कि एक समय तो कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी अपने संसदीय क्षेत्र वायनाड और अमेठी की कुछ ऐसी ही तुलना की थी। 2024 इसका भी उत्तर देगा। अगर भाजपा सुदूर दक्षिण में इस बार भी अपना विस्तार नहीं कर पाती है उत्तर दक्षिण के चुनाव का यह विभाजन स्थापित हो जाएगा।
भाजपा की ओर से लगातार बहुमत की सरकार के फायदे गिनाए जा रहे है। बड़े फैसले इसीलिए लिए जा सके हैं कि भाजपा के पास पूर्ण बहुमत है। खुद प्रधानमंत्री मोदी विदेशों में भारत की बढ़ी अहमियत का कारण मजबूत सरकार को बताते रहे हैं। दूसरी तरफ गठबंधन सरकार के लिए मशक्कत हो रही है।
एक तरह से मोदी की छवि भाजपा से आगे निकल गई है। यह संदेश स्थापित हो गया है कि भाजपा चाहे राज्यों में ही क्यों न हो, वह करेगी जिसकी गारंटी मोदी देंगे। संगठन मे भी यही संदेश है।
दूसरी तरफ नेतृत्व की बजाय दलों को आगे कर लड़ा जा रहा है। कोई ऐसा सर्ममान्य नेतृत्व नहीं है जिसकी बात गठबंधन और जनता गारंटी की तरह ले। ऐसे में 2024 राजनीतिक दलों को सक्षम नेतृत्व चुनने के लिए भी मजबूर करेगा।
अगर भाजपा हैट्रिक बनाती है तो अन्य राजनीतिक दलों में ऐसा गुट मुखर हो सकता है, जो विकास और विरासत की राष्ट्रीय सोच रखता हो। अगर पासा पलटा तो केंद्रीय राजनीति में एक बार फिर से क्षेत्रीय दलों का रुतबा निखरेगा।
माना जा रहा था कि राम मंदिर का मुद्दा अब पुराना पड़ चुका है और अब भाजपा इसका कोई राजनीतिक लाभ नहीं ले सकेगी। इसके पीछे एक तर्क यह भी था कि हिंदुत्व और राम मंदिर मुद्दे के कारण जिन मतदाताओं को प्रभावित होना था, वे पहले ही प्रभावित हो चुके हैं और अब भाजपा को ही वोट कर रहे हैं। ऐसे में संभावना थी कि राम मंदिर के नाम पर भाजपा से नए मतदाता नहीं जुड़ेंगे और यह उसके लिए बहुत लाभदायक नहीं होगा।
पहली बार वोट करने वाले 15 करोड़ युवाओं पर असर
एक सर्वे में यह बात सामने आई है कि पहली बार वोट करने जा रहे नए मतदाताओं में राम मंदिर मुद्दे का आकर्षण बना हुआ है और पहली बार वोट करने वाले युवाओं की एक बड़ी संख्या भाजपा को वोट कर सकती है। 2024 के लोकसभा चुनाव में पहली बार वोट करने वाले युवाओं की संख्या लगभग आठ करोड़ थी, इस बार यह आंकड़ा आश्चर्यजनक रूप से 15 करोड़ के लगभग हो सकती है।
हर लोकसभा क्षेत्र में फैले इस विशाल मतदाता समूह पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, राम मंदिर, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे का व्यापक प्रभाव है और इनका एक बड़ा समूह भाजपा को वोट कर सकता है। यदि ऐसा होता है तो मोदी को केंद्र में हैट्रिक लगाने में कोई मुश्किल नहीं आने वाली है।
कमंडल के साथ मंडल भी
जातिगत जनगणना और ओबीसी आरक्षण विपक्ष का सबसे बड़ा चुनावी हथियार हो सकता है। भाजपा ने इस मुद्दे को बेअसर करने के लिए पहले ही योजना तैयार कर ली है। वह हर राज्य की सरकार, पार्टी संगठन में हर वर्ग के लोगों की भागीदारी सुनिश्चित कर रही है। हाल ही में बनी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारों में ओबीसी, दलित, आदिवासी और ब्राह्मण सबको उचित भागीदारी देकर उन्हें साथ लेने की कोशिश की गई है।
अयोध्या के श्री राम इंटरनेशनल हवाई अड्डे का नाम बदलकर भगवान वाल्मीकि के नाम पर रख दिया गया। यह अचानक में लिया गया निर्णय नहीं है। इसके सहारे भाजपा दलित-महादलित और आदिवासी समूह को अपने साथ मजबूती के साथ जोड़ना चाहती है। जिस तरह से चुनावी राज्यों में इन समूहों के मतदाताओं का भाजपा को समर्थन मिला है, माना जा सकता है कि उसे इसका लाभ लोकसभा चुनाव में भी मिल सकता है।
ये मुश्किलें भी
इस साल मणिपुर के मुद्दे ने केंद्र सरकार को काफी परेशान किया। उसकी तमाम कोशिशों के बाद भी मणिपुर के हालात जल्द सामान्य नहीं हुए। केंद्र ने 370 के विवादित प्रावधानों को समाप्त कर दावा किया था कि इससे कश्मीर में आतंकवाद को समाप्त करने में बड़ी मदद मिली है। लेकिन साल का अंत आते-आते कश्मीर में आतंकवादियों ने एक बार फिर सिर उठाना शुरू कर दिया है। इन्हें मजबूती से कुचलना ही सरकार को राहत दे सकता है।
साल के अंत में सब कुछ ठीक करने की कोशिश
2022 के अंत में भाजपा को हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था तो 2023 के मध्य में कर्नाटक में उसे मुंह की खानी पड़ी। लेकिन 2023 का अंत आते-आते भाजपा ने छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनाव जीतकर 2024 को लेकर अपनी दावेदारी मजबूत कर दी।
यहां काम बाकी
भाजपा ने पार्टी संगठन से लेकर सरकार तक में बड़े चेहरों को किनारे लगाकर युवाओं पर दांव लगाया है। इससे शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया और बीएस येदियुरप्पा जैसे नेताओं की भूमिका कमजोर हुई है। यदि इन नेताओं ने पूरा साथ नहीं दिया तो लोकसभा चुनाव में भाजपा को कुछ नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। साथ ही महंगाई और बेरोजगारी के मोर्चे पर अभी भी सरकार की मुश्किलें कम नहीं हुई हैं। यदि विपक्ष ने इन मुद्दों को मजबूती से उठाया तो लोकसभा चुनाव में सरकार की राहें आसान नहीं होंगी।
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