कोरोना महामारी के कारण वैश्विक बेचेनी है। वैज्ञानिक कम समय में ही कोरोना का टीका खोजने में सफल हुए हैं, लेकिन कोरोना की दवा अभी तक नहीं खोजी जा सकी है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी किसी स्पष्ट निर्णय पर नहीं पहुंचा है। महामारी से बचाव के लिए शारीरिक दूरी और मासक ही उपाय है। भारत की सभी सरकारें उपलब्ध साधनों का सदुपयोग कर रही है, लेकिन सवा अरब की जनसंख्या के लिए तत्काल व्यवस्था करना संभव नहीं है। अस्पताल कम हो गए हैं। बेड अपर्याप्त हैं। आक्सीजन का संकट है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कई देशों को भारत की मदद के लिए सहमत किया है। गैर सरकारी संगठन भी सहायार्थ जुटे हैं। चिकित्सा विज्ञानी व सरकारें संघर्षरत हैं। प्राणों पर संकट है। इसका बावजूद समाज का बड़ा हिस्सा भौतिक दूरी का पालन नहीं करता। अनेक अवसरों पर भीड़ जुट रही है। लोग मास्क भी नहीं लगाते। सब जानते हैं कि कोरोना से जीवन को खतरा है। बावजूद इसके लाखों लोग अनुशासन नहीं मानते। संक्रमण बढ़ रहा है, लेकिन अपनी और अपनों की प्राण रक्षा के लिए भी ज्यादातर लोग अनुशासन नहीं मानते।
समाचार माध्यमों में कोरोना सम्बंधी सूचनाओं का विस्फोट है। शवों की अंत्येष्टि की कठिनाई सचित्र दिखाई जा रही है। आक्सीजन की समस्या और अव्यवस्था के चित्र निराशा पैदा कर रहे हैं। बेशक इलेक्ट्रानिक मीडिया परिश्रमपूर्वक कोरोना सम्बंधी समाचार जुटा रहा है। पत्रकार मित्र जान हथेली पर रखकर जीवंत सूचनाएं दे रहे हैं। उनका काम प्रशंसनीय है। लेकिन ऐसी सूचनाओं का कृष्ण पक्ष भी है। ये निराशा बढ़ा रही हैं। कोरोना संक्रमित व्यक्ति अस्पताल जाते हुए ही जीवन से निराश हो जाता है। ऐसे अवसरों पर आशा संवर्द्धन की जरूरत ज्यादा है। आशा की मनोदशा में प्रत्येक व्यक्ति के चित्त में सकारात्मक भावशक्ति का विकास होता है। वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि आशा और निराशा में मनुष्य के स्नायु तंत्र में रासायनिक परिवर्तन होते हैं। आशावादी बीमारी धैर्य नहीं खोते।
उत्तर वैदिक काल की प्रतिष्ठित दार्शनिक रचना है छान्दोग्योपनिषद्। इसकी एक कथा में नारद से सनद कुमार ने ज्ञान के तत्व पूछे थे। सनद कुमार ने नारद से पूछा अब तक तुम जो जानते हो वो बताओ (छान्दोग्योपनिषद् अध्याय-7, खण्ड-1)। नारद ने अपनी जानकारी का वर्णन किया, “मुझे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद का ज्ञान प्राप्त है। इतिहास, पुराण रूप 5वाँ वेद भी मैंने पढ़ा है। व्याकरण, गणित, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, ब्रह्म विद्या, नीतिशास्त्र, भूत विद्या, क्षत्र विद्या, नक्षत्र विद्या, सर्व विद्या और नृत्य, संगीत आदि का भी मैं जानकार हूँ, (वही-2) सनत कुमार ने कहा कि तुम जो जानते हो वह केवल नाम है और सभी नामों को वाणी धारण करती है। वाणी की उपासना से वाणी के प्रभाव क्षेत्र में आने वाले विश्व का ज्ञान हो जाता है, लेकिन मन वाणी से श्रेष्ठ है। मन की तुलना में संकल्प बड़ा है। संकल्प वाणी को प्रेरित करता है। संकल्प उपास्य है। फिर बताया चित्त संकल्प से श्रेष्ठ है। पुरूष चेतनावान है। उस चेतना से प्रेरित होकर संकल्प करता है, मनन करता है। लेकिन चित्त से ध्यान ज्यादा श्रेष्ठ है और ध्यान से विज्ञान। फिर बताया विज्ञान से बल श्रेष्ठ है और बल से अन्न। अन्न से जल श्रेष्ठ है, जल की अपेक्षा तेज श्रेष्ठ है। तेज की तुलना में आकाश प्रधान है, आकाश की तुलना में स्मरण, लेकिन इन सबकी तुलना में आशा उत्कृष्ट है। आशा से दीप्त हुआ स्मरण कर्म करता है। पुत्र सहित तमाम धन धान्य की कामना करता है। नारद तुम आशा की उपासना करो।‘ इसके बाद भी अनेक तत्वों की चर्चा है।
आशा से भरपूर चित्त विषम परिस्थितियों में भी धीरज नहीं खोता है। आज की परिस्थितियों में धैर्य का महत्व है। आशावान व्यक्ति अस्तित्व पर विश्वास रखता है। अस्तित्व पर विश्वास का नाम श्रृद्धा है। परिस्थितियाँ बदला करती हैं। सुख-दुख बारी-बारी आते-जाते रहते हैं, लेकिन धैर्यपूर्ण मनुष्य निराश नहीं होता। विपरीत परिस्थिति में निराश होने से बड़ी क्षति होती है। महामारी के वातावरण में निराशा बढ़ाने वाली सूचनाओं के अम्बार हैं। पूरा वातावरण निराशाजनक हो गया है। महामारी से संघर्ष में अनेक अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं। सरकारें अपने पूरे संसाधनों के साथ जुटी हुई हैं। अस्पतालों में भर्ती अनेक पीड़ित स्वस्थ होकर घर भी लौट रहे हैं। उनमें 60-70 वर्ष या इसके ऊपर की आयु के बीमार भी शामिल हैं। स्वस्थ हुए मरीजों में आशा का महत्व ध्यान देने योग्य है। आशा के कारण उनका मनोबल क्षीण नहीं हुआ है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बातें बहुत होती हैं। चिकित्सा विज्ञानी भी अपनी जान हथेली पर रखकर काम कर रहे हैं। यह भी आशा का ही प्रत्यक्ष चेहरा है। राष्ट्रीय कर्तव्यपालन में जूझ रहे चिकित्सक धन्यवाद के पात्र हैं।
विज्ञान की सीमा है। सकारात्मक विचार आशा और श्रृद्धा विज्ञान की पकड़ में नहीं आते। भाव शक्ति, बुद्धि शक्ति से कम नहीं है। भारत को आशा और अस्तित्व के प्रति आस्था को भी साथ रखना होगा। विज्ञान ने मनुष्य जीवन में आशा, प्रेम और सौंदर्य पर ध्यान नहीं दिया। वह सत्य की खोज को ही लक्ष्य मानता है। मानव जीवन में आनंद की स्वतंत्र भूमिका है। पं॰ जवाहर लाल नेहरू ने भी ‘दि डिस्कवरी आफ इण्डिया‘ (541-47) में लिखा है, “विज्ञान का प्रत्यक्ष-ज्ञान के क्षेत्र से ताल्लुक है, लेकिन जो इससे हममें प्रवृत्ति पैदा होती है, उसका ताल्लुक विज्ञान के अलावा दूसरे और क्षेत्रों से भी है। आदमी का आखिरी मकसद ज्ञान प्राप्त करना, सच्चाई को समझना, अच्छाई और खूबसूरती को पहचानना कहा जाता है। प्रत्यक्ष छानबीन का वैज्ञानिक तरीका इन सब पर लागू नहीं होता और ऐसा लगता है कि जो कुछ जिंदगी में जरूरी है, वह इसकी पहुंच से बाहर है, जैसे कला और कविता के प्रति संवेदनशीलता, वह भावना जो हममें सुंदरता से पैदा होती है या अच्छाई के बारे में पैदा होने वाली अनुभूति।” यहां विज्ञान की सीमा है। वे आगे लिखते हैं, “हो सकता है कि वनस्पति-विज्ञानी, प्राणि-विज्ञानी के आकर्षण और सौंदर्य को कभी नहीं महसूस कर पायें। इसी तरह समाज-विज्ञानी में भी मानवता के बारे में प्रेम का बिल्कुल ही अभाव हो। लेकिन जब हम ऐसे क्षेत्र में पहुंच जायें, जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परे हो और पर्वत के शिखरों पर पहुंच जायें, जहां दर्शन का राज्य है और जिन्हें देख कर हमारे मन में तरह-तरह की कल्पनाएं होने लगें या जिनके पीछे का विशाल भू-भाग देख हम ठिठके से रह जायें, वह दृष्टिकोण और भाव भी बहुत जरूरी है।”
भाव शक्ति पर ध्यान देना जरूरी है। पंडित जी ने लिखा है, “विज्ञान पश्चिम की दुनिया पर हावी हो गया है और वहां सभी इसके गुन गाते हैं, लेकिन वहां लोग फिर भी वैज्ञानिक स्वभाव के असली स्वरूप को नहीं अपना सके हैं। उनको अपनी जिंदगी में इसकी भावना को अपनाना है। हिंदुस्तान में जाहिर है कि काफी लंबी मंजिल तय की जानी है, लेकिन हमारे रास्ते में बड़ी मुश्किलें कुछ ही आयेंगी। इसकी वजह यह है कि बाद के जमाने को छोड़कर हमारे गुजरे जमाने में हिंदुस्तान की विचारधारा का वैज्ञानिक स्वभाव और दृष्टिकोण के और साथ ही अंतर्राष्ट्रीयतावाद के साथ मेल रहा है। इसकी बुनियाद सच्चाई की निडर खोज, इंसान की मजबूती, यहां तक कि हर जानदार चीज की अलौकिकता पर, हर व्यक्ति और प्राणी के मुक्त और सहयोग आश्रित विकास पर रही है। विज्ञान के साथ भावशक्ति, आशा और धैर्य का भी महत्व है और अदृश्य अलौकिकता पर भी।
लेखक श्री हृदयनारायण दीक्षित जी उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।
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