हृदयनारायण दीक्षित
संसार प्रत्यक्ष है। संसार समझने के लिए प्रकृति प्रदत्त पाँच इन्द्रियाँ हैं। आँख से देखते हैं, कानों से सुनते हैं। त्वचा से स्पर्श करते हैं। जीभ से स्वाद लेते हैं और नाक से सूंघते हैं। संक्षेप में रुप, रस गंध, ध्वनि और स्वाद ही संसार समझने के उपकरण हैं। मन को इनका स्वामी बताया गया है। दृश्य पर मन न लगे तो देखना व्यर्थ हो जाता है। गीत संगीत पर मन न लगे तो सुनना बेकार। यही बात सभी इन्द्रियों पर लागू होती है। पढ़ता-सुनता आया हूं कि इन्द्रियों से प्राप्त सूचना मस्तिष्क तक जाती है। मस्तिष्क निर्णय लेता है। मस्तिष्क में लाखों कोष हैं। इसमें अध्ययन अनुभव के संग्रह हैं।
रेने डेकार्ट (1596-1650) प्रतिष्ठित बुद्धिवादी दार्शनिक थे। बुद्धिवादी दार्शनिक इन्द्रियों से प्राप्त अनुभव को वास्तविक ज्ञान नहीं मानते थे। उनके मतानुसार वास्तविक ज्ञान बुद्धि प्रत्ययों (कंसेप्ट) से ही संभव है। मनुष्य की बुद्धि को कुछ मौलिक सत्यों की जानकारी जन्म के साथ ही मिलती है। ऐसा कम या ज्यादा सभी मनुष्यों में होता है। जनचर्चा में इसे गाड गिफ्टेड कहा जाता है। वह परंपरा से प्राप्त बुद्धि का विवेचन करता है और नया जोड़ता है। डेकार्ट अपने दर्शन में प्रभुत्व और परंपरा के विरोधी थे। उन्होंने दो धारणाओं की स्थापना की। पहली धारणा के अनुसार ‘‘बुद्धि में यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने की अपूर्व क्षमता’’ है। दूसरी धारणा के अनुसार “मनुष्य की बुद्धि में यथार्थ ज्ञान को अयथार्थ से पृथक करने की कसौटी भी है। उन्होंने बुद्धि की इन दोनों क्षमताओं को ‘‘बुद्धि का स्वाभाविक प्रकाश’’ कहा है। विश्लेषण और संश्लेषण द्वारा सत्य तक पहंुचना प्राचीन ज्ञान परम्परा में भी है।
डेकार्ट के अनुसार बुद्धि के दो कार्य है। उन्होंने पहले को ‘इन्ट्यूशन’ कहा है। प्रयाग विश्व विद्यालय के दर्शन विभाग के अध्यक्ष डा0 जगदीश श्रीवास्तव ने ‘इनट्यूशन’ को हिन्दी में प्रतिभान कहा है। यह शब्द उचित भी है। भान आंतरिक अनुभव प्राप्त ज्ञान है। डेकार्ट ने प्रतिभान की परिभाषा भी की है, ‘‘प्रतिमान से हमारा तात्पर्य इन्द्रियों के अस्थिर साक्ष्य से नहीं है और भ्रामक निर्णय से भी नहीं। भ्रामक निर्णय दोषपूर्ण कल्पना विधान से उत्पन्न होते हैं। प्रतिभान धारणा विशुद्ध और सजग बुद्धि से प्राप्त होती है। तब संशय या अनिश्चितता नहीं रह जाती। उन्होंने बुद्धि का दूसरा कार्य निगमन या डिडक्शन बताया है।
बुद्धि द्वारा किसी विषय पर खण्डशः विचार निगमन है। लेकिन यह शुद्ध बुद्धि से ही संभव है। बुद्धि विभिन्न कारणों से दोषपूर्ण भी हो सकती है। अंधविश्वास में बुद्धि शुद्ध नहीं रहती। तब बुद्धि निगमन का कार्य नहीं कर पाती। डेकार्ट के अनुसार बुद्धि को शुद्ध रखना, भ्रमों और पूर्वाग्रहों से मुक्त रखना निगमन के लिए आवश्यक है। इसके लिए उन्होंने ‘‘सुव्यवस्थित’ संशय की जरूरत बताई है कि “हमें अपने सभी मतों पर तब तक संशय करना चाहिए जब तक हम उनकी प्रामाणिकता के प्रति आश्वस्त न हों।” डेकार्ट का ‘संशय’ ज्ञान का साधन है। ब्रिटिश दार्शनिक फ्रांसिस बेकन ने भी चिंतन को पूर्वाग्रहों से मुक्त रखने का विचार दिया है। डेकार्ट का ‘संशय’ महत्वपूर्ण है। मैं विद्यार्थी जीवन से ही संशयी हॅूं। डेकार्ट का ‘सुव्यवस्थित संशय’ मैंने 35 वर्ष की आयु के बाद पढ़ा है। अब मेरे मन में अपने संशय को लेकर भी संशय है कि विद्यार्थी जीवन में ही मेरे चित्त में संशय का जन्म क्यों हुआ था?
पाश्चात्य दर्शन में बुद्धिवाद है, अनेक विद्वान बुद्धिवादी हैं। भारतीय चिंतन में बुद्धि की महत्ता वैदिककाल में ही विकसित हो चुकी थी। यहां बुद्धि साध्य नहीं है, यह ज्ञान प्राप्ति का साधन है। गीता (2.39) में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “मैंने सांख्य (दर्शन) के अनुसार ज्ञान का विवेचन किया है, अब बुद्धि योग बताता हूं। सुनो! ऐसे ज्ञान से तुम कर्म बंधन मुक्त हो जाओगे।” इस श्लोक में सांख्य का अर्थ ज्ञान प्राप्ति की विश्लेषण पद्धति है। कपिल इस दर्शन के प्रवर्तक हैं। सांख्य पद्धति डेकार्ट के बुद्धिवादी दर्शन के ‘निगमन’ जैसी है। गीता का बुद्धियोग डेकार्ट, स्पिनोजा आदि दार्शनिकों के बुद्धिवाद से उच्चतर है। गीता (10.10) में प्रसंग भक्ति का है। भक्ति में आस्था और विश्वास अपरिहार्य है। माना जाता है कि भक्ति की पूर्णता में आराध्य ईश्वर या भगवान की प्राप्ति संभव है। लेकिन गीता के इस श्लोक में प्रीतिपूर्वक सतत् भक्ति करने वाले को बुद्धि योग की प्राप्ति होती है।” सतत् युक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वम्ं। यह श्लोक काफी रोचक है। यहां भक्ति का परिणाम भगवान का दर्शन नहीं बुद्धि योग है और बुद्धियोग की यात्रा में तर्क संशय की उपयोगिता है ही।
प्रकृति को ध्यान से देखने का अपना आनंद है। लेकिन देखने और दर्शन करने में आधारभूत अंतर है। देखने का सामान्य उपकरण आंखे हैं। हम आंख से देखने के साथ सुनना, सूंघना, स्पर्श और स्वाद भी जोड़ सकते हैं। लेकिन दर्शन में ज्ञान, मीमांसा है, बुद्धि है। सोच विचार की आगमन निगमन प्रणाली है। विश्लेषण विवेचन हैं। तर्क पद्धति है। निर्णय लेने तक संदेह और संशय है। अनुभवों से प्राप्त सत्य हैं और तथ्य भी हैं। विज्ञान द्वारा खोजे गए सूत्र व आविष्कार हैं। वैज्ञानिक सत्य प्रयोगसिद्ध भी हैं। दर्शन और विज्ञान जिज्ञासा और तर्क को महत्व देते हैं। भारत में तीर्थ यात्राएं होती हैं। मंदिर और मूर्तियों के दर्शन की परंपरा है। हम मूर्ति और मंदिर देखते हैं लेकिन इस आस्तिक कर्म को दर्शन करना कहते हैं। मूर्ति देखने और दर्शन करने में अंतर हैं। देखने में मूर्ति पत्थर या धातु है। प्रेमी और श्रद्धालु मूर्ति के पत्थर या धातु पर ध्यान नहीं देते। वे मूर्ति के भीतर देव का दर्शन करते हैं। भौतिक विज्ञान के पास ऐसी आस्तिकता का औचित्य नहीं है। दर्शन शास्त्र में भी इसका समाधानपरक उत्तर नहीं है। यह भक्तिभाव का प्रभाव है और यह प्रभाव कमजोर नहीं होता। कमजोर होता तो प्रभावित कैसे करता? संशयी विद्यार्थी ऐसे प्रभावों का विवेचन करते हैं।
बुद्धि ज्ञान का उपकरण है। बुद्धि के प्रयोग में समग्र दृष्टि का ही उपयोग है। ज्ञान प्राप्ति के लिए अखण्ड और कुशाग्र बुद्धि जरूरी है। कुशाग्र का अर्थ कुश का अग्र या नुकीला भाग होता है। खंडित बुद्धि संसार को खण्डित, विभाजित देखती है। अखण्ड बुद्धि से प्राप्त ज्ञान भी अखण्ड होता है। अखण्ड और कुशाग्र बुद्धि के लिए गीता (2.41) में ‘व्यवसायात्मिका’ और खण्डित बुद्धि के लिए अव्यावसायिक शब्द प्रयोग हुआ है, “व्यवसाय-आत्मिक बुद्धि एक ही है। इस बुद्धि का ध्येय एक होता है। जिनकी बुद्धि अपने प्रयोजन में आत्मिका है, वे लक्ष्य के प्रति दृढ़ प्रतिज्ञ होते हैं। जो ऐसे नहीं हैं, उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं में विभाजित रहती हैं।” बहु शाखा ह्यनन्ता श्र्च, वुद्धयो अव्यावयिनाम।” संसार में अनेक रूप हैं लेकिन अस्तित्व एक अखण्ड है। कुछ लोग रूपों में विभाजित अस्तित्व को विभक्त देखते हैं और शुद्ध बुद्धि वाले विभाजित प्रतीत होने वाले अस्तित्व को अखण्ड अविभाजित देखते हैं। गीता में अविभाजित देखने वाले को सही बताया गया है - यः पश्यति, सः पश्यति।
लेखक - श्री ह्रदय नारायण दीक्षित जी उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।
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