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सोनिया की सिहरन



के. विक्रम राव Twitter ID: @Kvikramrao


सोनिया गांधी कल (16 अक्टूबर 2021) बड़े जोरशोर से बोलीं कि वे अभी भी कांग्रेस अध्यक्ष हैं। हालांकि 10 अगस्त 2019 से वे कार्यवाहक मात्र हैं। राहुल गांधी का उसी दिन से त्यागपत्र कारगर माना जाता है। इस सकल प्रहसन का कारण यही है कि गत लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस का सूपड़ा ही साफ कर दिया था। शायद पराजय से हुयी ग्लानि की अवधि इस दौर में घट गयी हो। इस बीच समूचे सियासी नाटक में यवनिका से प्रियंका वाड्रा झांक रहीं हैं कि यदि भाई और मां को उनकी मदद चाहिये तो वे तत्पर हैं। फिलहाल वे उत्तर प्रदेश पार्टी मुखिया अजय लल्लू के साथ हैं। हालांकि यह लल्लू भाई राहुल के साथ अधिक बौद्धिक साम्य रखते हैं। उनके ही नामाराशि (1820—1882) गत सदी में एक गद्यकार थे। सिंहासन बत्तीसी, बेताल—पच्चीसी, माधव विलास, प्रेमसागर आदि हिन्दी गद्य के लब्ध—प्रतिष्ठि रचयिता वे रहे। सच्चाई यह है कि अध्यक्ष पद भी आखिर लाटरीनुमा ही है। किसके नाम कब खुल जाये। ''म्यूजिकल कुर्सी'' जैसा भी।



आम वोटर असमंजस में है। जवाब चाहेगा कि आखिर रखा क्या है इस पराजिता, हतभागिनी पार्टी की कुर्सी में? संभवत: पार्टी का अकूत फण्ड, सत्ता पाने की लिप्सा, पुराने मुकदमों से बचे रहने की कोशिश और कुनबे तथा जमात से सटे रहने की कामना। नेहरु के यह वंशज जानते है कि माया महाठगिनी होती है।


बावन—वर्षीय युवा राहुल भाग्यवान हैं। वर्ना इंग्लैण्ड में उनकी तरह भी युवराज चार्ल्स बेचारा बादशाह बनने के लिये तड़प रहा है। सिसक रहा है। उनकी अम्मा है महारानी एलिजाबेथ दुनिया छोड़तीं नहीं। अब 96 साल की हैं। लगता है आबे हयात पीकर जन्मी हैं। बहत्तर—वर्षीय चार्ल्स तो प्रतीक्षा में बुढ़ा गये। अब उनका पोता भी राजपद हेतु वयस्क बन गया। भारत जनतंत्र है। अत: मौका तो मिलेगा ही। करीब बाइस साल हुये सोनिया (1999) प्रधानमंत्री बन ही गयीं थीं। अटलजी पदच्युत हो गये थे। यदि मुलायम सिंह यादव धोबी पाट न लगाते, लगड़ी न मारते तो। भारत के मगध राज्य की रानी सेल्युकसपुत्री हेलेन के बाद सोनिया दूसरी यूरेशियन शासिका हो जातीं। तभी रोम से मां और समूचा कुटुंब दिल्ली पधार चुका था। राष्ट्रपति भवन जाने की बाट जोह रहा था।


के. विक्रम राव (वरिष्ठ पत्रकार)

किन्तु मसला यहां जनवादी है। आखिर कबतक कांग्रेस पार्टी चुनाव को बिना मतपत्र के कराती रहेगी? पिछली बार जितेन्द्र प्रसाद बनाम सोनिया गांधी के वक्त (30 अक्टूबर 2000) वोटिंग हुयी थी। आखिर निर्वाचन की प्रतिस्पर्धा से अब डर क्यों? दो दशक हो गये। यहां पड़ोसी इस्लामी पाकिस्तान का किस्सा याद आता है। सैनिक षड़यंत्र द्वारा निर्वाचित सरकार (प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो) को अपदस्क कर मार्शल लॉ द्वारा जनरल मोहम्मद जियाउलहक सत्ता पर आये थे। उनका वादा था कि शीघ्र मतदान करायेंगे। टालते रहे। उनका नाई उनसे पूछता रहता था कि ''जनरल साहब, इंतखाब कब करायेंगे?'' जिया का सरल उत्तर था : ''जल्दी ही।'' पर वह लम्हा नहीं आया और बार—बार लगातार नाई पूछता रहता था। एक बार दाढ़ी मूंढ़ते वक्त नाई ने फिर पूछा, तो जनरल जिया ने गुस्से में पूछा : ''क्यों पूछता है रोज?'' सहमते हुये नाई बोला : ''सदर साहब, चुनाव की बात सुनते ही आपके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अत: उस्तरा फेरने में आसानी हो जाती है।'' कांग्रेस को भी ऐसी ही सिहरन होती होगी। खासकर 23 बागियों के बाद से। कपित सिब्बल, गुलाम नबी, आदि मजबूत लोग हैं। पार्टी अगर नेहरुजन के हाथ से फिसल गयी तो?


इन्दिरा गांधी इसी चुनाव की चुनौती के कारण कांग्रेस अध्यक्ष पद के टक्कर में हार चुकीं थीं। कांग्रेस अध्यक्ष एस. निपलिंगप्पा ने प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को पार्टी—विरोधी हरकत पर निष्कासित (1969 नवम्बर) कर दिया था। फिर इंन्दिरा ने बढ़िया उपाय ढूंढा। असम के देवकांत बरुआ को कांग्रेस अध्यक्ष नामित कर दिया। अब न वोट, न चुनाव और न कोई डर। यही बरुआ साहब थे जिन्होंने कहावत गढ़ी थी : ''इन्दिरा ईज इंडिया, इंडिया ईज इन्दिरा।'' जब आजादी के तुरंत बाद जवाहरलाल नेहरु को ऐसे ही खतरे की आशंका हुयी तो उन्होंने प्रधानमंत्री तथा कांग्रेस अध्यक्ष पद को एक ही में समाहित कर दिया। तब कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में राजर्षि बाबू पुरुषोत्तमदास टंडन बनाम आचार्य जेबी कृपलानी का चुनावी द्वंद्व था।


नेहरु ने कृपलानी के लिये वोट मांगा। पर वे हार गये। तो नेहरु ने राजनीतिक संकट सर्जाया। वे बोले कि पार्टी और सरकार के मुखिया समान धारा के हों। टंडन जी आशय भांप कर त्यागपत्र दे बैठे। प्रधानमंत्री ही कांग्रेस अध्यक्ष भी बन गये। इस घटना के ठीक चन्द माह पूर्व पाकिस्तान में प्रधानमंत्री नवाबजादा लियाकत अली खान पाकिस्तान मुस्लिम लीग के अध्यक्ष भी बन गये थे। उस वक्त इस निर्णय की नेहरु ने बड़ी आलोचना की थी। उन्होंने लोकतांत्रिक परिपाटी को नष्ट करने का आरोप लियाकत अली पर लगाया था। बस कुछ ही दिनों बाद उनका लोकतांत्रिक सिद्धांत रद्दी कर दिया गया? सोनिया को सारी घटनायें याद करायी गयीं होंगी। नेहरु परिवार की परम्परा यही है जो उन्हें विरासत में मिली है।


K Vikram Rao



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