समान नागरिक संहिता। ये तीन शब्द सुनते ही कई लोगों के कान खड़े हो जाते हैं। खासतौर से राजनीति करने वालों के लिए यूनीफार्म सिविल कोड या समान नागरिक संहिता लंबे समय से सियासी औजार रहा है। देश के संविधान की मूल भावना से अलग वोटबैंक पालिटिक्स के चलते समान नागरिक संहिता का विरोध कर कई दलों ने अपने उल्लू सीधे किए हैं।
अब दिल्ली हाईकोर्ट ने एक केस की सुनवाई के दौरान देशभर में समान नागरिक संहिता लागू करने की वकालत की है।
अदालत ने स्पष्ट रुप से कहा है कि भारतीय समाज में अब धर्म, जाति और समुदाय की पारंपरिक रूढ़ियां टूट रही हैं, इसलिए समय आ गया है कि संविधान की धारा 44 के आलोक में समान नागरिक संहिता की तरफ कदम बढ़ाया जाए।
क्या है समान नागरिक संहिता (धारा 44)
संविधान के भाग चार में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत का वर्णन है। संविधान के अनुच्छेद 36 से 51 के जरिए राज्य को विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों पर सुझाव दिए गए हैं और उम्मीद की गई है कि राज्य अपनी नीतियां तय करते हुए इन नीति निर्देशक तत्वों को ध्यान में रखेंगी। इन्हीं में आर्टिकल 44 राज्य को उचित समय आने पर सभी धर्मों लिए 'समान नागरिक संहिता' बनाने का निर्देश देता है। कुल मिलाकर आर्टिकल 44 का उद्देश्य कमजोर वर्गों से भेदभाव की समस्या को खत्म करके देशभर में विभिन्न सांस्कृतिक समूहों के बीच तालमेल बढ़ाना है।
क्या कहा था डॉ. आंबेडकर ने
संविधान सभा में प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान बनते समय ही कहा था कि समान नागरिक संहिता अपेक्षित है, लेकिन फिलहाल इसे विभिन्न धर्मावलंबियों की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए। इस तरह, संविधान के मसौदे में आर्टिकल 35 को अंगीकृत संविधान के आर्टिकल 44 के रूप में शामिल कर दिया गया और उम्मीद की गई कि जब राष्ट्र एकमत हो जाएगा तो समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आ जाएगा।
डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में दिए गए एक भाषण में कहा था, 'किसी को यह नहीं मानना चाहिए कि अगर राज्य के पास शक्ति है तो वह इसे तुरंत ही लागू कर देगा...संभव है कि मुसलमान या इसाई या कोई अन्य समुदाय राज्य को इस संदर्भ में दी गई शक्ति को आपत्तिजनक मान सकता है। मुझे लगता है कि ऐसा करने वाला कोई पागल ही होगा।
क्या थी संविधान निर्माताओं की सोच?
हमारे संविधान निर्माताओं ने समान नागरिक संहिता को भले ही तत्काल लागू नहीं किया था, लेकिन धारा 44 के जरिए इसकी कल्पना जरूर की थी। दरअसल ये भारतीय मानस की वो उदारता थी जिसकी आड़ में लंबे समय से राजनीति की जा रही है। संविधान निर्माता चाहते थे कि सभी धर्मों और संप्रदायों के लोगों के लिए एक जैसा पर्सनल लॉ हो। चूंकि बंटवारे के वक्त के घाव उस वक्त ताजा थे इसलिए ये एक किस्म की रियायत थी कि जो मुसलमान भारत में टिक गए हैं वो वक्त के साथ यहां के नियम कानून का पालन करें। उन्होंने नीति निर्देशक सिद्धांत के तहत अपनी भावना का इजहार कर दिया। इस आर्टिकल के जरिए संविधान निर्माताओं ने साफ कहा कि राज्य इस बात का प्रयास करेगा कि सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बने जिसे पूरे देश में लागू किया जाए।
क्या है पर्सनल लॉ
संविधान निर्माताओं ने उस वक्त अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ बनाने का समर्थन किया था। अब संबंधित धर्म के पर्सनल लॉ के मुताबिक ही उसके मानने वालों में शादी, तलाक, गुजारा भत्ता, गोद लेने की प्रक्रिया, विरासत से जुड़े अधिकार आदि तय होते हैं। जिस दिन से देश में समान नागरिक संहिता लागू हो जाएगी, उसी दिन से शादी से लेकर विरासत से जुड़े मामलों में भी सभी धर्मों और समुदायों के लिए एक ही कानून लागू होगा।
क्या था शाहबानो प्रकरण
शाहबानो मामले में शीर्ष अदालत ने कहा था कि एक समान नागरिक संहिता परस्पर विरोधी विचारधारा वाले कानूनों के प्रति असमान निष्ठा को हटाकर राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य की पूर्ति करने में मदद करेगी। यह भी देखा गया था कि राज्य पर देश के नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता को सुरक्षित रखने का कर्तव्य है। आपको याद दिला दें कि शाहबानो को सुप्रीम कोर्ट से तो न्याय मिला था लेकिन तत्कालीन राजीव गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस की केंद्र सरकार ने अदालत के फैसले को धता बताते हुए तुष्टीकरण की राजनीति को बल दिया और संसद में कानून पास कर मुसलमानों को संतुष्ट किया था। जिसका नतीजा ये हुआ कि शाहबानो जीवन भर किलसती रही और कांग्रेस मुस्लिम वोटों पर एकाधिकार कर चुनाव दर चुनाव जीतती रही।
हाई कोर्ट ने 1985 में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से जारी एक निर्देश का हवाला देते हुए निराशा जताई कि तीन दशक बाद भी इसे गंभीरता से नहीं लिया गया है।
अभी किस मामले में अदालत ने दिया फैसला
अदालत जब तलाक के एक मामले में सुनवाई कर रही थी तो उसके सामने यह सवाल खड़ा हो गया था कि तलाक पर फैसला हिन्दू मैरिज एक्ट के मुताबिक दिया जाए या फिर मीना जनजाति के नियम के तहत।
इस मामले में पति हिन्दू मैरिज एक्ट के अनुसार तलाक चाहता था, जबकि पत्नी चाहती थी कि वो मीना जनजाति से आती है तो उसके अनुसार ही तलाक हो क्योंकि उस पर हिंदू मैरिज एक्ट लागू नहीं होता। इसलिए वह चाहती थी कि पति द्वारा फैमिली कोर्ट में दाखिल तलाक की अर्जी खारिज की जाए। पत्नी की इस याचिका के बाद पति ने हाईकोर्ट में उसकी दलील के खिलाफ याचिका दायर की थी। हाईकोर्ट ने पति की अपील को स्वीकार किया और यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की जरूरत महसूस करते हुए उपरोक्त बातें कहीं।
अदालत ने सुनवाई के दौरान कहा कि आर्टिकल 44 में जिस यूनिफार्म सिविल कोड की उम्मीद जताई गई है, अब उसे हकीकत में बदलना चाहिए। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में ये भी कहा कि इस फैसले को केंद्रीय कानून मंत्रालय भेजा जाए, ताकि वह इस पर विचार कर सके।
अब क्या होगा
वर्तमान में केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। बीजेपी लंबे समय से देश में समान नागरिक संहिता के लिए संघर्ष करती रही है। बीजेपी की सोच है समान नागरिक संहिता ना होने के चलते देश में एक ही जैसा गुनाह करने वाले दो अलग अलग संप्रदाय के लोगों में एक को सजा होती है तो दूसरे को नहीं। ऐसे में ना सिर्फ भारतीय संविधान और कानून का दोहरा चेहरा प्रकट होता बल्कि एक जैसे अपराध पर जब किसी को सजा नहीं होती तो इससे सजा पाने वाला समाज अपने ही देश में खुद को ठगा हुआ महसूस करता है। दूसरी तरफ पर्सनल लॉ की आड़ में जो अपराधी सजा से बचता है वो और उसका पूरा समाज भारतीय सामाजिक तानेबाने को छिन्न भिन्न करने में लग जाता है।
ऐसे में अदालत की टिप्पणी के बाद उम्मीद की जा सकती है कि वर्तमान केंद्र सरकार इस दिशा में सार्थक कदम उठा ले।
भारत में कहां लागू है समान नागरिक संहिता
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एस ए बोबडे ने भी गोवा के यूनिफॉर्म सिविल कोड की तारीफ की थी। बतौर सीजेआई गोवा में हाई कोर्ट बिल्डिंग के उद्घाटन के मौके पर चीफ जस्टिस ने कहा था कि गोवा के पास पहले से ही ऐसा यूनिफॉर्म सिविल कोड है जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी।
टीम स्टेट टुडे
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