उत्तर प्रदेश की राजनीति में आरोप प्रत्यारोप तो चलते ही रहते हैं। मुद्दे भी हर दौर की सरकार में कमोबेश वही रहते हैं। फर्क सियासी जुगलबंदी से पैदा होता है। एक बार पूरी बीएसपी की सरकार, फिर पूरी एसपी की सरकार और अबकी बार पूरी बीजेपी की सरकार। दिलचस्प ये नहीं कि उपचुनाव में कौन कहां जीतेगा या कौन हारेगा। यूपी के आम लोगों की दिलचस्पी इस उपचुनाव की सात सीटों के नतीजों के बाद होने वाली सियासी जुगलबंदी पर है।
बीते चुनाव से अलग 2022 में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी क्या वोट कटुआ से आगे बढ़ेगी या कुछ करिश्मा करेंगीं। सिर्फ इतना ही नहीं एसपी बीएसपी की जुगलबंदी, और एसपी कांग्रेस की जुगलबंदी देख चुका प्रदेश सियासी आकाओं के दिमाग को पढ़ने में लगा है।
उत्तर प्रदेश की सात विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव सत्तापक्ष भाजपा के लिए जितने प्रतिष्ठापूर्ण हैं उससे कम महत्वपूर्ण विरोधी दलों के लिए भी नहीं हैं। उपचुनाव के नतीजों से जहां सत्तापक्ष के कामकाज तथा दावों की परख होने वाली है, वहीं विपक्ष की जमीनी पकड़ व पहुंच का आकलन भी होने जा रहा है। यह आकलन 2022 में प्रदेश के भाजपा विरोधी भावी सियासी समीकरणों की झलक भी दिखाएगा।
उपचुनाव के नतीजों से यह संकेत मिलेगा कि विधानसभा के मुख्य चुनाव में भाजपा विरोधी दलों की राजनीतिक दिशा किस तरफ रहने वाली है। इसकी वजह इन सीटों का पुराना इतिहास है। ज्यादातर सीटों पर विपक्षी पार्टियों की जीत का रिकॉर्ड काफी बेहतर रहा है। ऐसे में उपचुनाव के नतीजे इस बात की तरफ इशारा करेंगे कि योगी सरकार पर लगाए जा रहे विरोधी दलों के आरोपों का जनता के बीच क्या असर है।
2022 के चुनावी समर में जनता किस दल में भाजपा से मुकाबले की सबसे ज्यादा संभावना देख रही है। यह भी पता चलेगा कि वर्ष 2017 में भाजपा की जीत वास्तव में सियासी बदलाव का परिणाम थी या उस समय के समीकरणों ने भाजपा की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
पहले कई सीटों पर रह चुका है विपक्ष का कब्जा
परिसीमन में रारी से मल्हनी बनी सीट पर भाजपा को 1962 का चुनाव छोड़कर अभी तक कभी जीत हासिल नहीं हुई थी। 1962 में यहां जनसंघ ने जीत हासिल की थी।
उन्नाव की बांगरमऊ सीट पर भी 2017 से पहले भाजपा का खाता नहीं खुल सका था। 2017 में कुलदीप सिंह सेंगर ने भाजपा से चुनाव लड़कर यहां कमल खिलाने की साध पूरी की। घाटमपुर सीट पर भी 1977 से अब तक सिर्फ 2017 में ही भाजपा को जीत हासिल हुई।
फिरोजाबाद की टूंडला सीट पर 1996 में शिव सिंह चक ने भाजपा को जीत दिलाई थी। उसके बाद 2017 में यहां भाजपा के डॉ. एसपी सिंह बघेल चुनाव जीते थे। बुलंदशहर सीट पर भी भाजपा को अब तक केवल तीन बार जीत मिली है। एक बार जनसंघ को विजय मिली थी।
देवरिया सीट पर बीते छह चुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो भाजपा तीन बार जीती है। परिसीमन के बाद हुए 2012 के विधानसभा चुनाव में अमरोहा की नौगांवा सादात सीट पर सपा ने जीत दर्ज की थी। 2017 में यहां से भाजपा के चेतन चौहान विजयी रहे थे।
ऐसी स्थिति में इन सीटों पर उपचुनाव की जीत या हार ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह भी दिलचस्प हो गया है कि मुख्य मुकाबला किन पार्टियों में होता है। इससे पता चलेगा कि 2022 के चुनाव में भाजपा के मुकाबले सियासी चौसर किस तरह सजने वाली है।
टीम स्टेट टुडे
Comments