हृदयनारायण दीक्षित
भारत में पूर्वजों पितरों के प्रति श्रद्धाभाव रहा है। वैदिक आस्था के अनुसार पितृयज्ञ में पितर पुत्रों के प्रेम में आते हैं। ऐसे यज्ञों का विशेष विधि विधान है। यह विधान अथर्ववेद के रचनाकाल से बहुत प्राचीन है। कहते हैं, “हमने यज्ञ विज्ञान अपने पितरों से ही सीखा है। सभी पितर यहां कुश आसन पर बैठे।”यज्ञ विधान ही क्यों राष्ट्रजीवन के सभी कर्तव्यों के पालन की निष्ठा व विधि सांस्कृतिक निरंतरता से प्राप्त हुई है। पितरों पूर्वजों के प्रति राष्ट्र की श्रद्धा भी प्राचीन है। अथर्ववेद में कहते हैं “सभी पितामह आदि पूर्वज, उसके बाद मृत्यु को प्राप्त सभी पितरगण और वैभव संपन्न वर्तमान वरिष्ठों को नमस्कार है - इदं पितृभ्यो नमो, अस्त्ववद्य ये पूर्वासो ये अपरास ईयुः।”यह सूक्त ऋषि कवि अथर्वा का है। एक मंत्र (वही 58) में कहते हैं “अथर्वा, अंगिरा और भृगु आदि पितरगण भी पधारे हैं।” अथर्वा की पितर रूप में उपस्थिति आश्चर्यजनक है। पितरों के आह्वान में आश्चर्यजनक श्रद्धाभाव है। आहूत महानुभावों में यम भी हैं। कहते हैं, “हे यमदेव! अंगिरा आदि पितरों सहित आप इस यज्ञ में आएं। हम आपके साथ आपके पिता विवस्वान को भी आमंत्रित करते हैं। सब कुश आसन पर बैंठे।” (वही 59-60)
पूर्वजों के प्रति श्रद्धा स्वाभाविक है। यह श्रद्धाभाव अंधविश्वास नहीं है। प्रकृति प्रवाह में निरंतरता है। जो जाता है, वह प्रकट जीवन से अदृश्य हो जाता है। अदृश्य होना समाप्त होना नहीं है। वैदिक परंपरा में व्यक्त व अव्यक्त का उल्लेख है। व्यक्त प्रत्यक्ष है और अव्यक्त अदृश्य। अदृश्य अव्यक्त का भी अस्तित्व है। वैदिक ऋषि मृत्यु के बाद भी जीवन की निरंतरता पर विश्वास करते हैं। वे मृत्यु को प्राप्त पितरों, पूर्वजों का अस्तित्व मानते हैं। इसी पितर परंपरा में अनेक ऋषि भी हैं। अथर्ववेद के कवि ऋषि “पूर्वजों, मार्गद्रष्टा, ऋषियों व पूर्वकाल में हो चुके सभी महानुभावांे को नमस्कार करते हैं - इदं नमः ऋषिभ्यः पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पथिकृद्म्यः।” (अथर्ववेद 18.2.2) यह मंत्र ऋग्वेद में भी है। अथर्ववेद में कहते हैं “पूर्वज कवियों ने तपस्वी जीवन जिया है और श्रेष्ठ जीवन की सहस्त्रों विधियों का विकास किया है। (18.2.18)
पूर्वजों के मृत्यु के बाद के अस्तित्व पर प्रश्न उठाए जा सकते हैं लेकिन पितरों पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व आदरभाव का औचित्य है। श्रद्धा भाव है। पूर्वजों के प्रति श्रद्धा भाव से श्राद्ध कर्म का विकास हुआ। श्रद्धाभाव है। अमूर्त है। श्राद्ध श्रद्धा का व्यक्त कर्मकाण्ड है। श्राद्ध कर्मकाण्ड का विकास अथर्ववेद के अंत्येष्टि यज्ञ से हुआ। पतंजलि ने श्रद्धा को चित्त की स्थिरिता या अक्षोभ से जोड़ा है। श्रद्धा की अभिव्यक्ति श्राद्ध है। भारत में पूर्वजों पितरों के प्रति श्रद्धा की स्थाई भावना है। नवरात्रि उत्सवों के 15 दिन पहले से पूरा पखवारा पितर पक्ष कहलाता है। संप्रति यही पितर पक्ष चल रहा है। इस समय को पितरों के प्रति श्राद्ध के लिए श्रेष्ठ माना जाता है। लोकमान्यता है कि इस पक्ष में पूर्वज पितर आकाश लोक आदि से उतरकर धरती पर आते हैं। 15 दिन पितरों के प्रति गहन श्रद्धा भाव में रहने का सुख निराला है। वैदिक निरूक्त में श्रत और श्रद्धा को सत्य बताया गया है। पितरों का आदर प्रत्यक्ष मानवीय गुण है। हम पितृपंक्ति का विस्तार हैं। पितर और पूर्वज हमारे इस संसार में जन्म लेने का उपकरण हैं। वे थे, इसलिए हम हैं। वे न होते, तो हम न होते। उन्होंने पालन पोषण दिया, स्वयं की महत्वाकांक्षाएं छोड़ी। उन्होंने हमारी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए तमाम कर्म किए। वे सदा सर्वदा नमस्कारों के योग्य हैं।
पूर्वजों ने श्रद्धा भाव को श्राद्ध कर्म बनाया। पिता, पितामह और प्रपितामह के लिए अन्न भोजन जल आदि के अर्पण तर्पण का कर्मकाण्ड बनाया। विश्वास किया जाता है कि श्राद्ध कर्म में अर्पित भोजन पितरों को मिलता है। वे प्रसन्न होते हैं और सन्तति को सभी सुख साधन देते हैं। लेकिन ऐसे कर्मकाण्ड आधुनिक वैज्ञानिक चेतना की संगति में नहीं आते। लेकिन ऐसे कर्मकाण्ड निरूद्देश्य नहीं होते। सभ्य समाज में पितरों का आदर होता ही है, होना भी चाहिए। श्राद्धकर्म को लेकर चलने वाली बहस पुरानी है। मत्स्य पुराण (19.2) में प्रश्न है कि क्या श्राद्ध का भोजन मृत पूर्वजों द्वारा खाया जाता है? जो मृत्यु के बाद अन्य शरीर धारण कर चुके होते हैं?” यह प्रश्न वैज्ञानिक है। बड़ी बात है कि पुराणों में भी भौतिकवादी प्रश्न हैं। इस प्रश्न का उत्तर भी दिया गया है, “पिता, पितामह और प्रपितामह को वैदिक मंत्रों में क्रमशः वसु, रूद्र और आदित्य देव के समान माना गया है। वे नाम परिचय सहित उच्चारण किए गए मंत्रों आहुतियों को पितरों के पास ले जाते हैं। यदि पितर सत्कर्म के कारण देवता हो गए हैं तो वह भोजन आनंद रूप में उनके पास पहुंचता है, यदि पशु हो गए हैं तो भोजन घास हो जाता है यदि सर्प जैसे रेंगने वाली योनि में हैं तो यह भोजन वायु आदि के रूप में उन्हें मिलता है।”
मत्स्य पुराण के प्रश्न तत्कालीन समाज के यथार्थवादी तर्क हैं। पुराण में इनके उत्तर श्राद्ध समर्थकों के स्पष्टीकरण माने जा सकते हैं। श्राद्ध परम्परा पुरानी है। पुनर्जन्म पर विश्वास की बातें भी ऋग्वेद अथर्ववेद में हैं। संतानों द्वारा प्रेषित भोजन पितरों तक पहुंच जाने में पुनर्जन्म के सिद्धांत से झोल पैदा हुई। पहले बात साफ थी कि मृतात्माएं श्राद्धकर्म का भोजन पाती हैं। पुनर्जन्म सिद्धांत के कारण आत्मा के नए शरीर धारण की बात आई। आर्य समाज श्राद्धकर्म के पक्ष में नहीं है। बेशक उसने वैदिक दर्शन को प्रतिष्ठा दी लेकिन उसके सामने ऋग्वेद में पितरों के उल्लेख की समस्या थी। आर्य समाज ने ऋग्वैदिक पितरों को मृत नहीं माना। उन्हें जीवित वानप्रस्थी बताया। समस्या शतपथ ब्राह्मण के रचनाकार के सामने भी थी। यहां मंत्र है “यह भोजन पिता जी आपके लिए है।”
याज्ञवल्क्य की व्यवस्था है “वसु, रूद्र और आदित्य हमारे पितर हैं। वे श्राद्ध के देवता हैं। पितरों का ध्यान वसु रूद्र और आदित्य के रूप में ही करना चाहिए। वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने शाकल्य को रूद्र और वसु का अर्थ समझाया है। यहां पृथ्वी, आकाश आदि वसु हैं, प्राण, इन्द्रियां मन आदि रूद्र हैं। आदित्य प्रकाश हैं। पितर श्रद्धा यहां प्रकृति की शक्तियों के प्रति ही दिखाई पड़ती है।
ऋग्वेद के दसवें मण्डल (सूक्त 14) में मृत पितरों पर रोचक विवरण हैं। कहते हैं “यम (नियम) व्यवस्था को कोई बदल नहीं सकता। जिस मार्ग से हमारे पूर्वज गये हैं, उसी मार्ग से सभी मनुष्य जायेंगे। अन्ततः सबको यम के पास जाना ही पड़ता है।” मृत पिता से कहते हैं “जिस पुरातन मार्ग से पूर्वज पितर गये हैं, आप भी उसी से गमन करें।” फिर यज्ञ कर्म की चर्चा है। यम से प्रार्थना है कि “आप अंगिरा आदि पितरजनों सहित हमारे यज्ञ में आएं।” आगे (सूक्त 15) पितरों को नमस्कार निवेदन करते हैं, “जो पितामह आदि पितर पूर्वज या उसके बाद मृत्यु को प्राप्त पितर हैं, या जो फिर से उत्पन्न हो गए हैं। उन सबको नमस्कार है - इदं पितृभ्यो नमः अस्त्वद्य ये पूर्वासो या उपरास ईयुः।” फिर कहते हैं, “हे पितरों! हमारे आवाहन पर आप आएं।” यही सारी बातें अथर्ववेद में भी हैं। पूर्वजों पितरों का सम्मान और मृत होने के बावजूद स्मरण करना आनंददायी है। पूर्वजों का आदर भारत की संस्कृति का उच्चतर मूल्य है। इसी तरह वरिष्ठों का सम्मान भी। लेकिन बीते 20-25 वर्ष से वृद्धों का आदर भी घटा है। सांस्कृतिक परंपरा ऐसी नहीं है। हम सबको पूर्वजों, अग्रजों का आदर करना चाहिए।
लेखक श्री हृदयनारायण दीक्षित जी उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।
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