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“वेद धर्म सबसे बड़ा अनुपम सच्चा ज्ञान, फिर क्यों छोड़ इसे पढ़ लूं झूठ कुरान" -क्यों लिखा संत रविदास ने

Writer's picture: statetodaytvstatetodaytv

Updated: Feb 28, 2021






महान संत, समाज सुधारक गुरु रविदास जी की जयंती के अवसर पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। राष्ट्रपति कोविंद ने ट्वीट करके कहा कि श्री गुरु रविदास जयंती के पावन अवसर पर सभी देशवासियों को शुभकामनाएं। गुरु रविदास जी ने सामाजिक समानता, एकता, नैतिकता तथा परिश्रमरत रहने के मूल्यों पर बल दिया। आइए, हम उनकी शिक्षाओं का पालन करते हुए समता, एकता और न्याय पर आधारित समाज तथा देश के निर्माण के लिए एकजुट होकर आगे बढ़ें।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट करके कहा कि संत रविदास जी ने सदियों पहले समानता, सद्भावना और करुणा पर जो संदेश दिए, वे देशवासियों को युगों-युगों तक प्रेरित करने वाले हैं। उनकी जयंती पर उन्हें मेरा सादर नमन। गृह मंत्री अमित शाह ने ट्वीट करके कहा कि संत शिरोमणि श्री रविदास जी ने अपनी रचनाओं व कार्यों से पूरे समाज को एकता के सूत्र में बांधकर सभी वर्गों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होनें जीवनभर कर्म को प्रमुखता देने और आंतरिक पवित्रता व निर्मलता का जो संदेश दिया, वह हमें सदा प्रेरित करता रहेगा। उन्हें कोटि-कोटि नमन।


27 फरवरी को संत रविदास जी की जयंती मनाई जाती है। संत रविदास को संत रैदास और भगत रविदास के नाम से भी जाना जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार, गुरु रविदास जी का जन्म माघ माह की पूर्णिमा तिथि को वर्ष 1398 में हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि जिस दिन रविदास जी का जन्म हुआ था, उस दिन रविवार था। इसी की वजह से इनका नाम रविदास पड़ गया।


आपको बताते हैं संत रविदास जी के जन्म और जीवन से जुड़े कुछ रोचक प्रसंग


कब होती है रविदास जयंती?


संत रविदास जी की जयंती अंग्रेजी महीने की तारीख नहीं बल्कि हिंदू रीति के अनुसार पंचांग तिथि के अनुसार मनाई जाती है। माघ पूर्णिमा के दिन रविदास जी की जयंती होती है। इस बार 27 फरवरी दिन शुक्रवार को रविदास जी की जयंती है। इनकी जयंती को लोग पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। इस दौरान जयंती का समय अर्थात पूर्णिमा का समय 26 फरवरी शुक्रवार दोपहर 3 बजकर 51 मिनट से लेकर 27 फरवरी शनिवार दोपहर 1 बजकर 45 मिनट तक है।


कहां हुआ था संत रविदास जी का जन्म?


संत गुरु रविदास जी का जन्म उत्तर प्रदेश के काशी में हुआ था। ऐसे में इनके जन्मदिन यानी माघ पूर्णिमा के दिन दुनियाभर से लोग काशी पहुंचते हैं। यहां पर भव्य उत्सव मनाया जाता है। इसके अलावा रविदास जी की जयंती को सिख धर्म के लोग भी बेहद श्रद्धा से मनाते हैं। इस दिन के दो दिन पहले गुरु ग्रंथ साहिब का अखंड पाठ किया जाता है। इसे पूर्णिमा के दिन समाप्त किया जाता है। इसके बाद कीर्तन दरबार होता है। साथ ही रागी जत्था गुरु रविदास जी की वाणियों का गायन करते हैं।


भक्तिकालीन संत व कवि रविदास का जीवन व उनकी शिक्षाएं अत्यंत प्रेरक हैं। वे महान आध्यात्मिक समाज सुधारक थे। उन्होंने कहा, मनोवांक्षित जन्म किसी के वश की बात नहीं है। जन्म ईश्वर के हाथ में है। सभी ईश्वर की संतान हैं अत: जन्म के आधार पर भेदभाव करना ईश्वर की व्यवस्था को नकारने जैसा है। वे कहते हैं- रैदास जन्म के कारणै, होत न कोई नीच। नर को नीच करि डारि हैं, औछे करम की कीच।। मान्यता है कि संत रविदास ने तपोबल से सिद्धियां हासिल कीं, चमत्कार किए, लेकिन कभी अहंकार नहीं किया।


उन्होंने घृणा का प्रतिकार घृणा से नहीं, बल्कि प्रेम से किया। हिंसा का हिंसा से नहीं, बल्कि अहिंसा और सद्भावना से किया। इसलिए वे प्रत्येक व्यक्ति के प्रेरणास्त्रोत बने। उन्होंने निर्भीकता से अपनी बात कही। समाज को नई राह दिखाई और कुरीतियों को दूर करने के लिए सच और साहस को आधार बनाया। संत रविदास को वेदों पर अटूट विश्वास था। वे सभी को वेद पढ़ने का उपदेश देते थे।


वे कहते हैं-'जन्म जात मत पूछिए, का जात और पाँत। रैदास पूत सम प्रभु के कोई नहिं जात-कुजात।।' वे कहते हैं-'एकै माटी के सभै भांडे, सभ का एकै सिरजनहार। रैदास व्यापै एकौ घट भीतर, सभ को एकै घड़ै कुम्हार।। वैदिक वर्ण व्यवस्था में व्यक्ति के गुण, कर्म और स्वभाव को महत्त्‍‌व दिया गया है। संत रैदास ने मांसाहार, अनैतिकता, धनलिप्सा, दुराचार को भी असामाजिक घोषित किया। उन्होंने सभी तरह की धार्मिक संकीर्णताओं, रूढि़यों, भेदभाव का विरोध करते हुए कहा, इस तरह की प्रवृत्तियों से समाज कमजोर और अपवित्र बनता है।

उन्होंने धार्मिक स्थलों के बजाय व्यक्ति के बेहतर कमरें को महत्वपूर्ण माना और हृदय की पवित्रता को जरूरी बताया। वे कहते हैं-'का मथुरा का द्वारका, का काशी हरिद्वार। रैदास खोजा दिल आपना, तउ मिलिया दिलदार।। आडंबरों का विरोध करने के कारण उनकी निंदा-आलोचना भी की गई, लेकिन उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं की।


उन्होंने धार्मिक एकता स्थापित करने के प्रयास किए। संत रविदास ने जिसे समाज, राष्ट्र और संस्कृति के उन्नयन में नुकसानदायक पाया, उसका खुलकर विरोध किया। इस तरह एक साधक, साधु, योगी, समाज सुधारक, कवि और सिद्ध के रूप में संत रविदास आज भी मानव समाज के लिए प्रेरक, शिक्षक, उपदेशक, मानव मूल्यों के रक्षक के रूप में दिखाई पड़ते हैं।


मन चंगा तो कठौती में गंगा


एक दिन संत रविदास कुछ काम कर रहे थे। उसी समय एक व्यक्ति उनके पास आया और दुखी होकर बोला महाराज मेरी अंगूठी आज गंगा नदी में गिर गई। बहुत तलाश किया लेकिन नहीं मिली। संत रविदास से व्यक्ति का दुख देखा नहीं गया। उन्होंने ईश्वर को याद किया और कहा मन चंगा तो कठौती में गंगा। फिर संत ने अपने पास रखी कठौती में हाथ डाला और उस व्यक्ति की अंगूठी निकालकर उसे दे दी। संत रविदास की ये पारलौकिक शक्ति, ईश्वर में आस्था और चमत्कार तो था ही, उसी समय से संत की वाणी जन जन के बीच लोकोक्ति बन गई। मन चंगा तो कठौती में गंगा का अर्थ है कि अगर आप का अंतकरण शुद्ध है तो आप कोई भी काम क्यों ना करते हों, किसी भी जाति, वर्ग या वर्ण से आते हों आप ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं और ईश्वर आपकी मदद करते हैं।



जब संत को मुस्लिम बनाने की हुआ प्रयास


संत रैदास ने जब समाज में तत्कालीन आततायी विदेशी मुस्लिम शासक सिकंदर लोदी का आतंक देखा तब वे दुखी हो बैठे। उस समय लोदी ने हिंदुस्थानी जनता को सताना-कुचलना और डराकर धर्म परिवर्तन कराना प्रारम्भ कर दिया था। हिन्दुओं पर विभिन्न प्रकार के नाजायज कर जैसे तीर्थ यात्रा पर जजिया कर, शव दाह करनें पर जजिया कर, हिन्दू रीति से विवाह करनें पर जजिया कर जैसे आततायी आदेशों से देश का हिन्दू समाज त्राहि-त्राहि कर उठा था। भारतीय-हिन्दू परंपराओं और आस्थाओं के पालन करनें वालों से कर वसूल करनें और मुस्लिम धर्म माननें वालों को छूट, प्राथमिकता वरीयता देनें के पीछे एक मात्र भाव यही था कि हिन्दू धर्मावलम्बी तंग आकर इस्लाम स्वीकार कर लें। उस समय में स्वामी रामानंद ने अपनें भक्ति भाव के माध्यम से देश में देश भक्ति का भाव जागृत किया और आततायी मुसलमान शासकों के विरुद्ध एक आन्दोलन को जन्म दिया था। स्वामी रामानन्द ने तत्कालीन परिस्थितियों को समझकर कर विभिन्न जातियों के प्रतिनिधि संतों को जोड़कर द्वादश भगवत शिष्य मण्डली स्थापित की। विभिन्न समाजों का प्रतिनिधित्व करनें वाली इस द्वादश मंडली के सूत्रधार और प्रमुख, संत रविदास जी थे। संत रैदास ने हिन्दू संस्कारों के पालन पर मुस्लिम शासकों द्वारा लिए जानें वाले जजिया कर का अपनी मंडली से विरोध किया और इस हेतु जागरण अभियान चला दिया. इस मंडली ने सम्पूर्ण भारत में भ्रमण कर देशज भाव और स्वधर्म भाव के रक्षण और उसके जागरण का दूभर कार्य करना प्रारम्भ किया। संत रैदास के नेतृत्व में उस समय समाज में ऐसा जागरण हुआ कि उन्होंने धर्मांतरण को न केवल रोक दिया बल्कि उस कठिनतम और चरम संघर्ष के दौर में मुस्लिम शासकों को खुली चुनौती देते हुए देश के अनेकों क्षेत्रों में धर्मान्तरित हिन्दुओं की घरवापसी का कार्यक्रम भी जोरशोर से चलाया। संत रविदास न केवल देश भर की पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार्य संत हो गए अपितु अगड़ी जातियों के शासकों और राजाओं ने भी उन्हें राजनैतिक कारणों से अपनें अपनें दरबार में सम्मानपूर्ण स्थान देना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार संत रविदास को मिलनें वाले सम्मान के कारण देश की पिछड़ी और अगड़ी जातियों एतिहासिक समरसता का वातावरण निर्मित हो चला था। संत रविदास भारतीय सामाजिक एकता के प्रतिनिधि संत के रूप में स्थापित हो गए थे क्योंकि मुस्लिम शासकों को चुनौती देनें का जो दुष्कर कार्य ये शासक नहीं कर पाए थे वह समाज शक्ति को जागृत करनें के बल पर एक संत ने कर दिया था!! पिछड़ी जातियों में आर्थिक व सामाजिक पिछड़ेपन के बाद भी स्वधर्म सम्मान का भाव जागृत करनें में रैदास सफल रहे और इसी का परिणाम है कि आज भी इन जातियों में मुस्लिम मतांतरण का बहुत कम प्रतिशत देखनें को मिलता है।


निर्धन और अशिक्षित समाज में धर्मांतरण रोकनें और घर वापसी का जो अद्भुत, दूभर और दुष्कर कार्य उस काल में हुआ वह इस दिशा में प्रतिनिधि रूप में संत रविदासजी का ही सूत्रपात था। इससे मुस्लिम शासकों में उनकें प्रति भय का भाव हो गया।


मुस्लिम आततायी शासक सिकंदर लोदी ने सदन नाम के एक कसाई को संत रैदास के पास मुस्लिम धर्म अपनानें का सन्देश लेकर भेजा। यह ठीक वैसी ही घड़ी थी जैसी कि वर्तमान काल में बोधिसत्व बाबा साहेब आंबेडकर के समय आन खड़ी हुई थी। यदि उस समय कहीं संत रैदास आततायी लोदी के दिए लालच में फंस जाते या उससे भयभीत हो जाते तो इस देश के हिंदुस्थानी समाज की बड़ी ही ऐतिहासिक हानि होती। यदि उस दिन संत रैदास झुक जाते तो निस्संदेह आज इतिहास कुछ और होता किन्तु धन्य रहे पूज्य संत रविदास कि वे टस से मस भी न हुए, अपितु दृढ़ता पूर्वक पुरे देश को धर्मांतरण के विरुद्ध अलख जलाए रखनें का आव्हान भी करते रहे।


उन्होंने अपनी रैदास रामायण में लिखा –


“वेद धर्म सबसे बड़ा अनुपम सच्चा ज्ञान


फिर क्यों छोड़ इसे पढ लूं झूठ कुरआन


वेद धर्म छोडूं नहीं कोसिस करो हजार


तिल-तिल काटो चाहि,गला काटो कटार”


देश ने अचंभित होकर यह दृश्य भी देखा कि संत रैदास को मुस्लिम हो जानें का सन्देश लेकर उनकें पास आनें वाला सदन कसाई स्वयं वैष्णव पंथ स्वीकार कर विष्णु भक्ति में रामदास के नाम से लीन हो गया। यह वह समय था जब शक्तिशाली किन्तु निर्मम और बर्बर शास्सक सिकंदर लोदी क्रुद्ध हो बैठा और उसनें संत रैदास की टोली को चमार या चांडाल घोषित कर दिया। इनकें अनुयाइयों से जबरन ही चर्मकारी का और मरे पशुओं के निपटान का कार्य अत्याचार पूर्वक कराया जानें लगा। भारत में चमार जाति का नाम इस घटना क्रम और सिकंदर लोदी की ही उपज है। संत रविदास उस काल में हिन्दू शासकों में इतनें लोकप्रिय और सम्मानीय हुए कि प्रसिद्द मारवाड़ चित्तोड़ घरानें की महारानी मीरा ने उन्हें अपना गुरु धारण किया। महारानी मीरा से रैदास की भक्ति में वे मीरा बाई कहलानें लगी। भक्त मीरा नें स्वरचित पदों में अनेकों बार संत रैदास का स्मरण गुरु स्वरूप किया है


‘गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुरसे कलम भिड़ी।

सत गुरु सैन दई जब आके जोत रली।’


‘कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।’

इसका अर्थ है कि ईश्वर भक्ति अहोभाग्य होती है. अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशाल हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है, जबकि लघु शरीर की ‘पिपीलिका’ यानि चींटी इन कणों का सहजता से भक्षण कर लेती है। इस प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर भक्त हो सकता है।


टीम स्टेट टुडे


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